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शतक
का बंध करने पर बहला अल्पतर और सत्रह का बन्ध करके तेरह का बन्ध करने पर दुसरा अल्पतर होता है । इसी प्रकार तेरह का बन्ध करके नौ का इन्ध करने पर तीसरा, नौ का बन्ध करके पांच का बन्ध करने पर चौथा, पांच का बन्ध करके चार का बंध करने पर पांचवां, चार का बन्ध्र करके तीन का बन्ध करने पर फटा, तीन का बन्ध्र करके दो का बन्ध करने पर सातवां और दो का बन्ध करके एक का बन्ध करने पर आठवां अल्पतर बन्ध होता है।।
बंधस्थान दम होने से अवस्थित बंश्च भी दस ही होते हैं ।
दो अबक्तव्य बन्ध निम्न प्रकार हैं-ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का बन्ध न करके जब कोई जीव वहां से च्युत होकर नौवें गुणस्थान में आता है और वहां संज्वलन लोभ का बन्ध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है और यदि ग्यारहवें गुणस्थान में आयु का क्षय हो जाने के कारण मरकर के कोई जीव अनुत्तरवासी देवों में जन्म लेता है और वहां सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करता है तो दूसरा अवक्तव्य बन्न होता है।
दन सम्यन्दष्टि नहीं हो सकता है, उपशम सम्यष्टि ही सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है
छालिगमेसा पर आमाणं कोई गच्छज्जा ।२३॥ स्वसंमत्तद्धातो पडमाणो छावनिगमेसाए उवसमसंमत्तद्धाते परति उकोसाते, जहन्नण एकसमयसे साए उनसमसंमत्तद्धाए सासापणमम्मत्तं कोनि गच्छेज्जा, णो सम्ने गच्छेजा।
-कर्मप्रकृति (उपशम का) चूणि - उपशम सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक ममय और अधिक-सेअधिक छह आपली शेष रहने पर कोई-कोई उपशम सम्यग्दृष्टि सासादन मम्यक्ष को प्राप्त होता है। अतः बाईस का बन्ध करके इक्कीस का बन्ध रूप अल्पतर बन्ध संभव