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जाति, वैक्रिय शरीर, पहला संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, शुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात इन प्रकृति रूप देवगति सहित बट्टाईस का वन्धस्थान होता है । इस स्थान का बन्धक मरकर देव होता है ।
नरकगति की अपेक्षा लाई का स्थानी नस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर हुण्डसंस्थान, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात, इन प्रकृति रूप नरकगतियोग्य अट्ठाईस का बन्धस्थान होता है ।
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शतक
नो ध्रुवबंधिनी तथा बस, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर' या अस्थिर, शुभ अथवा अशुभ, दुभंग, अनादेय, यशःकोर्ति या अवशः कोर्ति, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, सेवा संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ वास, पराघात, इन प्रकृति रूप द्वीन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस प्रकृति का बंधस्थान होता है। इसमें द्वीन्द्रिय के स्थान में वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय के स्थान में चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के स्थान में पंचेन्द्रिय को मिलाने से क्रमशः नीन्द्रिययुक्त, चतुरिन्द्रियत और पंचेन्द्रिययुत उनतीस प्रकृति का बन्धस्थान होता है ।
इस स्थान में यह विशेषता समझना चाहिये कि सुभग और दुभंग, आदेय और अनादेय, सुस्वर और दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति, इन युगलों में से एक-एक प्रकृति का तथा छह संस्थानों और छह संहननों में से किसी एक संस्थान का और किसी एक संहनन का बंध होता है । इसमें तिर्यंचगति और तिर्यचानुपूर्वी को घटाकर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी के मिलाने से पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस का बंधस्थान होता है।