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पंचम कर्मग्रन्थ
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अकषाय जीवों को भी बंधता है और शेष सात कर्म केवल सकषाय जीवों को बंधते हैं । अकपाय जीवों को जो वेदनीय कर्म का बन्ध होता है, उसकी केवल दो समय की स्थित होती है, पहले समय में उसका बन्ध होता है और दूसरे समय में उसका वेदन होकर निर्जरा हो जाती है । अतः कर्मों की जघन्य स्थिति बतलाने के प्रसंग में वेदनीय कर्म की जो बारह मुहूर्त की जघन्य स्थिति बतलाई वह 'मुत्त अफसायठिई' अकषाय जीवों को छोड़कर सकषाय जीवों को समझना चाहिये । अर्थात् सकषाय वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त' है और अकषाय वेदनीय की दो मुंहत ।
आगे उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से कर्मों के अबाधाकाल (अनुदयकाल) का कथन किया जायेगा | अतः उसके अनुसार मूल प्रकृतियों का भी अबाधाकाल समझना चाहिये । वानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कामका तीन हजार वर्ष, मोहनीय का सात हजार वर्ष, नाम तथा गोत्र कर्म का दो हजार वर्ष एवं आयु कर्म का अन्तमुहर्त और पूर्व कोड़ी का तीसरा भाग । स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जो काल बाकी रहे उसे निषेकाकाल (भोग्यकाल) जानना चाहिये । अबाधाकाल यानी दलिकों की रचना से रहित काल । जिस समय जितनी स्थिति वाला जो कर्म आत्मा बांधता है और उसके भाग में जितनी कर्मवर्गणायें आती हैं, वे वर्गणायें उतने समय पर्यन्त नियत फल दे सकने के लिये अपनी रचना करती हैं। प्रारम्भ के कुछ स्थानों में वे रचना नहीं करती हैं | इसी को अबाधाकाल कहते हैं । अबाधाकाल के बाद के पहले स्थान में अधिक, दूसरे में उससे कम, तीसरे में दूसरे से कम, इस प्रकार स्थितिबन्ध के चरम समय तक भोगने के लिये की गई कर्मदलिकों की रचना को निषेक कहा जाता है।
१ उत्तराध्ययन' में अन्तमुहूर्त प्रमाण भी कही है ।