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शतक
रूप, अट्ठाईस प्रकृति रूप और उनतीस प्रकृति रूप ये पांच स्थान बन जाते हैं और तीन बंधस्थान क्रमशः तीस प्रकृति रूप, इकतीस प्रकृति रूप और एक प्रकृति रूप हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
नामकर्म की बन्धयोग्य ६७ प्रकृतियां हैं। एक ममय में एक जीत्र को सभी प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। किन्न उनमें से एक समय में एक जीव के तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बन्ध को प्राप्त होती हैं। इसीलिये नामकर्म के आठ बन्धस्थान माने गये हैं।
पूर्व में जिन कर्मों के बन्धस्थानों को बतलाया गया है वे कर्म जीवविपाको हैं—जीव के आत्मिक गुणा पर ही उनका असर पड़ता है। किंतु नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है और उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शारीरिक रचना में ही होता है। अतः भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से एक ही बंधस्थान को अबान्तर प्रकृतियों में अन्तर पड़ जाता है।
वर्ण चतुष्क, तंजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात, नामकर्म की ये नौ प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी है। चारों गति के सभी जीवों के आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक इनका बन्ध अवश्य होता है । इनके साथ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, स्थावर, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, सूक्ष्म-बादर में से कोई एक, साधारण प्रत्येक में से कोई एक, इन चौदह प्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी नौ प्रकृतियों के साथ मिलाने पर (१४+६) तेईस प्रकृति का बन्धस्थान होता है । ये तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त एकेन्द्रियप्रयोग्य हैं, जिनको एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी बांधता है । अर्थात् इस स्थान का बन्धक जीब मरकर एकेन्द्रिय अपर्याप्त में ही जन्म लेता है।
इन तेईस प्रकृतियों में से अपर्याप्त प्रकृति को कम करके पर्याप्त,