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पंचम कर्मग्रन्य
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शब्दार्थ-घणघाइ-घातिकर्मों की प्रकृतियां, दुगोय -- गोबतिक, वेदनीय ठिक, जिणा–तीर्थकर नामकर्म, ससियरतिग-- यमत्रिक और इतर-स्थावरत्रिक, सुभगभगवउ- सुभग चतुष्क, दुर्भग चतुष्क, सास- उच्चावास, जाइतिग - जातित्रिक, जियविवागा-जीविपावी, आऊ चउरो- चारः आयू, भवधियानाभवविपाकी। ___गाधाथ-सैतालीस घाति प्रतियां, गोत्र द्विवा, वेदनीयद्विक, तीर्थकर नामकर्म, वसत्रिक,स्थावरलिक, सुभग चतुष्क, दुभंग चतुष्क, उच्छवास, जातित्रिक, ये जीवविपाकी प्रकृतियां हैं और चार. आयु भवविपाकी हैं। विशेषार्थ-गाथा में जीवविपाकी और भवविपाको प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं।
जो प्रकृतियां जीव में ही साक्षात् फल दिखाती हैं अर्थात् जीव के ज्ञान आदि स्वरूप का घात आदि करती हैं वे जीवविपाको प्रकृ. तियां कहलाती हैं तथा भवविपाकी प्रकृतियां चे हैं जिनका बंध वर्तमान भव में हो जाने पर भी वर्तमान भव का त्याग करने के पश्चात् अपने उस योग्य भव की प्राप्ति होने पर विपाक दिखलाती हैं ।
गाथा में जीवविपाकी प्रकृतियों के नाम और संख्या इस प्रकार यतलाई है
४७ घाति प्रकृतियां (ज्ञानाचरण ५, दर्शनावरण , मोहनीय २८, अंतराय ५), दो गोन, दो वेदनीय, नीर्थकर नामकर्म, वमत्रिक (त्रस, बादर, पर्याप्त), स्थावरत्रिक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त), सुभग चतुष्क (सुभग, मुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति), दुर्भग चतुष्क (दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति), उच्छ्वास नामकर्म, जातित्रिक (एकेन्द्रिय आदि