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का । अर्थात् कोई जीव एक समय में आठों कर्म का कोई सात कर्मों का, कोई छह कर्मों का और कोई जीव एक समय में एक प्रकृति का ही बंध करता है। इसके सिवाय ऐसी कोई स्थिति नहीं जहां एक साथ दो या तीन या चार या पांच कर्मों का बंध होता हो ।
शतक
इन चार बंधस्थानों में 'तिन्नि भूगारा' तीन भूयस्कार, 'अप्पतरा तिय' तीन अल्पतर और 'चउरो अवट्टिया' चार अवस्थित बंध होते हैं किन्तु 'ण हु अवत्तन्वो' अवक्तव्य बंध नहीं होता है ।" इनका स्पष्टीकरण यहां किया जा रहा है।
भूयस्कार अघ
पहले समय में कम प्रकृतियों का बंध करके दूसरे समय में उससे अधिक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को भूयस्कार बंध कहते हैं। मूल प्रकृतियों में इस प्रकार के बंध तीन हो होते है, जो इस प्रकार हैं
कोई जीव ग्यारहवें — उपशान्तमोह गुणस्थान में एक साता वेदनीय का बंध' करके वहां से गिरकर जब दसवें गुणस्थान में आता है तब वहां छह कमों का बंध करता है। यह पहला भूयस्कार बंध है । वही जीव दसवें गुणस्थान से च्युत होकर जब नीचे के गुणस्थानों में आता है तब वहां सात कर्मों का बंध करता है । यह दूसरा भूयस्कार बन्ध
१ गो० कर्मकांड में भी मूल प्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार जिसे वहा भुजाकार कहा है, आदि बन्ध इस प्रकार बतलाये हैं-चलारि निणितिय चड पर्याडिदुणाणि मूलपयडीणं । भृजगारपवराणि य अवद्विवाणिवि कसे होंति ||
-गो० कर्मकांड ४५३ स्थान चार है, इन स्थानों में भुजाकार, अल्पतर प्रकार के बन्ध होने हैं । 'य' शब्द से चौथा किन्तु यह चौथा बन्ध मूल प्रकृतियों में
- मूल प्रकृतियों के और अवस्थित ये तीन अवक्तव्य बन्ध समझना चाहिये नहीं होता है 1