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शतक
उनमें नौ, छह और चार प्रकृतियों के इस प्रकार से तीन बन्धस्थान होते हैं-नव छ चउ दंसे । दर्शनावरण कर्म के तीन बन्धस्थान मानने का कारण यह है कि दूसरे मासादन गुणस्थान तक तो सभी प्रकृतियों का बंध होने से नौ प्रकृतिक बंधस्थान होता है । सासादन मुगस्यान के अंत में स्त्यानांत्रिक के बंध की समाप्ति हो जाती है अतः तीसरे मिश्र गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के के प्रथम भाग तक शेष छह प्रकृतियों का ही वन्धस्थान है और अपूर्वकरण के प्रथम भाग के अन्त में निद्रा और प्रचला के बंध का निरोध हो जाने से आगे दसवें सूश्मसंपराय गुणस्थान तक शेष चार प्रकृतियों का ही बन्धस्थान होता है। इस प्रकार दर्शनावरण के नौ प्रकृति रूप, छह प्रकृति रूप और चार प्रकृति रूप ये तीन बंधस्थान हैं ।' इनमें भूयस्कर आदि बंध क्रमशः 'दुदु तिदु' दो, दो, तीन, दो हैं, यानी दो भूयस्कर, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बन्ध होते हैं । जो इस प्रकार हैं___ आठवें अपूर्वकरण गणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक में से किसी एक गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बन्ध करके जब कोई जीव अपुर्वकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग से नीचे आकर छह प्रकृतियों का बन्ध करता है तब पहला भूयस्कार बन्ध होता है और वहां से भी गिरकर जब नौ प्रकृतियों का बंध करता
१ पंचसंग्रह के सप्ततिका अधिकार में भी दर्शनावरण के तीन बंधस्थान इमी प्रकार बतलाये हैं
नवस्वहा बजाई गठ बसमेण सणावरणं ॥१० दर्शनावरण के तीन वन्यस्थान है। उनमें से पहले, दूसरे गुणस्थान में नौ का, उनमें आगे आठवें गुणस्थान लक छह प्रकृति का और आगे दसवें गुणस्थान तक चार प्रकृति का बन्धस्थान होता है।