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पातम
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होता है, एकदम नहीं, अतः दोनों बंधों के तीन-तीन भेद होते हैं । अन्य विकल्पों की हार नहीं है :
मूल कर्मों में भूयस्कार और अल्पतर बंधों का कथन करने के पश्चात अब अवस्थित बंध को कहते हैं । अवस्थित बन्ध
पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया है, दूसरे समय में भी उतने ही कमों के बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं। अर्थात् आठ को बांध कर आठ का, सात को बांध कर सात का, छह को बांध कर छह का और एक को बांध कर एक का बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं | बंधस्थान चार हैं, अतः अवस्थित बंध भी चार होते हैं। अवक्तव्य बन्ध ___ एक भी कर्म को न बांधकर पुनः कर्म बंध को अवक्तव्य बंध कहते हैं । यह बंध मूल कर्मों के बंधस्थानों में नहीं होता है । क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक तो बराबर कर्मबंध होता रहता है लेकिन चौदहवें गुणस्थान में ही किसी कर्म का बंध नहीं होता है और चौदहवें मुणस्थान में पहुँचने के बाद जीव लौटकर नीचे के गुणस्थान में नहीं आता है जिससे एक भी कर्म का बन्ध नहीं करने से पुनः कर्मबंध करने का अबसर ही नहीं आता है । इसीलिये मूल कम प्रकृतियों में अवक्तव्य बंध भी नहीं होता है।'
इस प्रकार से मूल कर्म प्रकृतियों में बंधस्थानों और उनके भयस्कार आदि बन्धों को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में भूयस्कार आदि बंधों के लक्षणों को कहते हैं । भूयस्कार आदि बंधों के लक्षण
एगादहिगे भूओ एमाईगरि अप्पतरो:
तम्मत्तोश्वद्विगओ अहमे समए अबतको ॥२६॥ १ अम्बंधगो न बंबई इइ अश्वत्तो अओ नदिध । --पंचसंग्रह २२०