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किन्ही की कम होती है। इस प्रकार के भिन्न-भिन्न कर्म परमाणुओं की संख्याओं से युक्त कर्मदलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है ।
इस प्रकार से प्रकृतिबंध आदि चारों बंध प्रकारों का स्वरूप समझना चाहिए । अब आगे की गाथा में पहले एकतिबंध का वर्णन करते हुये मूल प्रकृतियों के बंध के स्थान और उनमें सूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बंधों को बतलाते हैं ।
मूल प्रकृतियों के भूयस्कार आदि बंध
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मूलपयडीण अट्टसस ंगबंधंसु तिथि भूगारा । अध्यतरा तिय चजशे अवट्टिया ण हू अवत्तब्बो ||२२||
शब्दार्थ - मूलपयढीण मूल प्रकृतियों के अट्टसराछेग बंधेसु माठ, सात, छह और एक के बंधस्थान में, तिनि-तीन, भूगाराभूयस्कार बंध अध्पतरा1- अल्पतर बंध, लिप- तीन, चउरो चार, अट्टिया - अवस्थित बघ, ण हु-नहीं, अवत्तव्यो - अवक्तव्य बध ।
शतक
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गाथार्थ - मूल प्रकृतियों के आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक बंध स्थानों में तीन भूयस्कार बंध होते हैं । अल्पतर बंध तीन और अवस्थित बंध चार होते हैं । अवक्तव्य बंध नहीं होता है ।
विशेवार्थ - गाथा में मूल कर्म प्रकृतियों के बंधस्थानों को बतलाने के साथ-साथ उनके भूयस्कार आदि बंधों की संख्या का कथन किया है । कर्मों का बंध होता है, उनके बंघस्थान का विचार मूल किया जाता है। कर्म के ज्ञाना
वरण, दर्शनावरण आदि आठ मूल भेद हैं और उनकी बंध प्रकृतियाँ
एक समय में एक जीव के जितने समूह को एक बंघस्थान कहते हैं और उनकी उत्तर प्रकृतियों दोनों में
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