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शतक
स्वभाव और परिमाण भी वैसा ही तीव्र या मंत्र होगा। इसी प्रकार जीव के कषाय भाव जैसे तीव्र या मंद होंगे, बंध को प्राप्त परमाणुओं की स्थिति और फलदायक शक्ति भी वैसी ही तीव्र या मंद होगी । इसको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं
जीव की योगशक्ति को हवा, कषाय को चिपकने वाली गोंद और कर्म परमाणुओं को धूलि मान लें। जैसे हवा के चलने पर धूलि के कण उड़-उड़ कर उन स्थानों पर जमा हो जाते हैं जहाँ कोई चिपकने वाली वस्तु गोंद आदि लगी होती है। इस प्रकार जीव के प्रत्येक शारीरिक, वाचक और क्रिया से कर्म पुद्गलों का आत्मा में आस्रव होता है जो जीव के संक्लेश परिणामों की सहायता पाकर आत्मा से बंध जाते हैं। हवा मंद या तीव्र जैसी होती है, धूलि उसी परिमाण में उड़ती है और गोंद वगैरह जितनी चिपकाने वाली होती है, धुलि भी उतनी ही स्थिरता के साथ वहाँ ठहर जाती है । इसी तरह योगशक्ति जितनी तीव्र होती है, आगत कर्म परमाणुओं की संख्या भी उतनी ही अधिक होती है तथा कषाय की तीव्रता के अनुरूप कर्म परमाणुओं में उतनी ही अधिक स्थिति और उतना ही अधिक अनुभाग का बंध होता है ।
प्रकृतिबंध आदि चारों बंधों के स्वरूप को समझाने के लिये प्रथम कर्मग्रन्थ में मोदक (लड्डुओं) का दृष्टांत दिया गया है ।" जिसका सारांश इस प्रकार है
जैसे कि वातनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव वायु को नाश करने का है, पित्तनाशक पदार्थों से बने हुए मोदक का स्वभाव पित्त को शान्त करने का और कफनाशक पदार्थों से बने मोदक का
१ पटिइरस एसा तं चउहा मोयगस्थ दिता ।
- प्रथम कर्मग्रन्थ, गा० २