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जीव द्वारा ग्रहण किये गये और आत्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट कर्मपुद्गलों में भी चार अंशों का निर्माण होता है, जिनको क्रमशः प्रकृतिबंध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबंध कहते हैं ।' उनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
(१) प्रकृतिमध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियों स्वभावों के उत्पन्न होने को प्रकृतिबंध कहते हैं । यहां प्रकृति शब्द का अर्थ स्वभाव है । दूसरी परिभाषा के अनुसार स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं । अर्थात् प्रकृतिबंध कोई स्वतन्त्र बंध नहीं है किन्तु शेष तीन बंधों के समुदाय का ही नाम है।
१ (क) चडबिहे बंधे पण्णते, तं जहा—पगबंधे, ठिइवघे, अणुभावबन्ने, पएसबंधे ।
-समवायर्याग, समवाय ४ (ख) प्रकृति स्थित्पनृभागप्रदेशास्तद्विधयः ।
-तत्वार्थमूत्रमा २. दिगम्बर साहित्य में प्रकृति शब्द का सिर्फ स्वभाव अर्थ माना हैप्रकृति स्वभावः, प्रकृति स्वभाव इत्यनर्थान्तरम् ।
-- तत्वार्थसूत्र ८१३ (सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक टीका) पयडी सील सहावो........
-गोकर्मकार ३ ३ ठिईबंधो दलम्स सिइ पएसबंधो पएसगहणं जं। नाम रसो अणुभागो तस्समुदाओ पगइबंधो ।
पंचसंपह ४३२ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि स्वभाव अर्थ में अनुभाग बंध का मतलब कर्म की फलजनक शस्ति को शुभाशुभता सपा तीव्रता-मदता से ही है, परन्तु मपुदाय अर्थ में अनुभाग बंध से कर्म को फलजनक शक्ति और उसकी शुभाशुभता तथा तीव्रता-मदता इतना अविवक्षित है। वेताम्बर साहित्य में प्रति पर के स्वपाव और समुदाय दोनों अर्थ ग्रहण किये गये हैं।