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पंचम कर्मग्रन्थ और कर्मप्रदेशों के एक क्षेत्रावगाह होने को बंध कहते हैं। आत्मा की राग पात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनजानन्न कर्मपरमाणु चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं । ये कर्म परमाणु रूप, रस, गंध और म्पर्श मुण वाले होने से पौद्गलिक हैं । जो पुद्गल कम रूप में परिणत होते हैं, वे अत्यन्त सूक्ष्म रज-धूलि के समान हैं, जिनको इन्द्रियां नहीं जान सकती हैं। किन्तु केवलज्ञानी अथवा परम अवधिज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा उनको जान सकते हैं। ___जैसे कोई व्यक्ति शरीर में तेल लगाकर धुलि में लौटे तो बह धूलि उसके सर्वांग शरीर में चिपट जाती है, वैसे ही संसारावस्थापन जीत्र के आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दनन्हलनचलन होने से अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का आत्मप्रदेशा के साथ संबंध होने लगता है। जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे का गोला प्रति समय अपने सवांग से जल को खोंचता है, उसी प्रकार संसारी जीव अपनी योगप्रवृति द्वारा प्रतिक्षण कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता रहता है और दूधपानी ब अग्नि तथा गर्म लोहे के गोले का जैसा सम्बन्ध होता है, वैसा ही जीव और कम परमाणुओं का संबंध हो जाता है। इस प्रकार के संबंध को ही बंध कहते हैं।
जीव द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण किये जाने पर यानी बंध होने पर उनमें चार अंशों का निर्माण होता है, जो बंध के प्रकार कहलाते हैं । जैसे कि गाय-भैस आदि द्वारा खाई गई घास आदि दूध रूप में परिणत होता है, तब उसमें मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है, उस स्त्रभाव के अमुक समय तक उसी रूप में बने रहने की कालमर्यादा आती है, उस मधुरता में तीव्रता-मंदता आदि विशेषतायें भो होती है और उस दूध का कुछ परिमाण (वजन) भी होता है। इसी प्रकार