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पंचम कर्मग्रम्य
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यह विपाक दो प्रकार का है - हेतुविपाक और रसविपाक ।' पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक --- फलानुभव होता है, वह प्रकृति हेतुविपाकी कहलाती है तथा रस के आश्रय अर्थात् रस की मुख्यता से निदिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, वह प्रकृति रसविपाकी कहलाती है। इन दोनों प्रकार के विपाकों में से भी प्रत्येक के पुनः चार-चार भेद हैं । पुद्गल, क्षेत्र, भव और जीव रूप हेतु के भेद से हेतुविपाकी के चार भेद हैं यानी पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी । इसी प्रकार से रसविपाक के भी एकस्थानक, द्विस्थानक, वीस्थानक और चारस्थानक ये चार भेद हैं। यहाँ कर्म प्रकृतियों के रसोदय के हेतुओं' - स्थानों के आधार से होने वाले पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी भेदों का वर्णन करते हैं, यानी कौन-सी कर्म प्रकृतियां पुद्गलविपाकी आदि हैं।
क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां
उक्त चार प्रकार के विपाकों में से यहां पहले क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाया है कि- 'खित्तविवागाऽणुपुवीओ' अनुपूर्वी नामकर्म क्षेत्रविपाकी है । यानी आनुपूर्वी नामकर्म की नरकानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी -- ये चारों प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं।
१ दुविहा विवागओ पुण हे विवागाओ रसविवागाओ। एक्केक्कावि य चउहा जओ चसदो विगप्पेणं ॥
२
जा जं समेच्च हे विभाग उदयं उवेंति पगईओ | ता तब्बिबागसन्ना संसभिहाणाई मुगमाइ ॥
पंचसंग्रह ३/४४
— पंचसंग्रह ३२४५