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शतक
नामकर्म के उदय स मस्तक आदि शुभ और अशुभ नामकर्म के उदय से पैर आदि अशुभ अवयव कहलाते है। शरीर नामकर्म के उदय स ग्रहीत पुद्गल शरीर रूप बनते हैं और अंगोपांग नाम-कर्म के द्वारा शरीर में अंग-उपांग का विभाग होता है। संस्थान नामकर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है और संहनन नामकर्म के उदय से हड्डियों का बन्धनविशेष होता है । इसी प्रकार उपघात, साधारण, प्रत्येक आदि प्रकृतियां भी शरीर रूप परिणत पुद्गलों में अपना फल देती हैं। इसीलिये निर्माण आदि पराघात पर्यन्त छत्तीस प्रकृतियां पुद्गल विपाकी हैं।'
इस प्रकार से क्षेत्र, जीव, भव, पुद्गल विपाकी प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब कुछ प्रकृतियों के विषाक भेदों के बारे में विशेष स्पष्टीकरण करते हैं।
यद्यपि सभी कर्मप्रकृतियां जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति होने के कारण किसी न किसी रूप में जीव में ही अपना फल देती है । जैसे आयुकर्म का भवधारण रूप विपाक जीव में हो होता है, क्योंकि आयुकर्म का उदय होने पर जीव को ही भव धारण करना पड़ता है और क्षेत्रविपाकी आनुपूर्वी कर्म भी श्रेणि के अनुसार गमन
६ गो० कर्मका गा० ४७-४६ में भी विपाकी प्रकृतियों को गिनाया है ।
दोनों में इतना अंतर है कि कर्मकांड में पुद्गल विपाकी प्रकृतियों की संख्या ६२ बतलाई है और कर्मग्रन्थ में २६ । इस अंतर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में बंधन और संघात प्रकृतियों को छोड़ दिया है और वर्णचतुष्क के सिर्फ मूल ४ मेद लिने हैं, उत्तर २० भेद नहीं लिये हैं। इस प्रकार १०+१६ -- २६ प्रकृतियों को कम करने से ६२--२६-३६ प्रकृतियां शेष रहती हैं।