Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मप्रत्य
पूर्वी, नरकालु, स्थावर दशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति) वर्ण चतुष्क ।
१
इस प्रकार से पुण्य पाप प्रकृतियों का कथन करने के बाद क्रम प्राप्त परावर्तमान और अपरावर्तमान प्रकृतियों को बतलाते हैं । लेकिन अपरावर्तमान प्रकृतियों की संख्या कम होने से पहले उनका विवेचन किया जा रहा है।
अपरावर्तमान प्रकृतियाँ नमधुवबधिनवगं
दंसण पणनाणदिग्ध परघायं । भयकुच्छ मिच्छासं जिण गुणसीसा अवरियता ||१८||
६.७
१ पंचसंग्रह में गुभ्य और पाप प्रकृतियों के बजाय प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियों के रूप में गणना की हैमणुमतिगं देवलिगं तिरिया ऊसास अठतणुभगं । विहगद्द वण्णाइ सुभं तसाइ दस तित्य निमाण चउरंसउसभभावव पराषाय पणिदि अगुरुसा उच्च | उज्जीय ऋ पसस्था सेसा बासीइ अपसत्ता । पंचसंग्रह ३२१, २२
LA
२ गरे० कर्मका गा० ४१, ४२ में पुण्य प्रकृतियां और प्रकृतियां गिनाई हैं। दोनों ग्रन्थों की गणना बराबर है।
में इतनी विशेषता है भेद विवक्षा से ६८ और अभेद विवक्षा से ४२ पुण्य प्रकृतियों तथा पाप प्रकृतियाँ बन्ध दशा में भेद विवक्षा से ६८ और अभेद विवक्षा से ५२ बतलाई हैं । उदय दशा में सम्यक्त्व और सम्यगु मिध्यात्व को मिलाकर भेद विवक्षा से १०० और अभेद विवक्षा से ८४ बताई हैं. पाच बंधन, पांच संघात और वर्णादि २० में से १६ इस प्रकार २६ प्रकृतियों के भेद और अभेद से पुण्य प्रकृतियों में तथा वर्णादि २० में से १६ प्रकृतियों के भेद और अभेद से पाप प्रकृतियों में अंतर पड़ता है ।
४३, ४४ में पाप लेकिन कर्मकांड