Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
गायार्थ - शरीरादि अष्टक, तीन वेद, दो युगल, सोलह कषाय, उद्योतद्विक, गोवद्विक, वेदनीयटिक, पाँच निद्रानें, उसवीशक और चार आयु ये परावर्तमान प्रकृतियां हैं। चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है। विशेषार्थ- गाथा में परावर्तमान और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों का कथन किया है।
परावर्तमान प्रकृतियाँ दूसरी प्रकृतियों के बंध, उदय अथवा बंधोदय दोनों को रोक कर अपना बंध, उदय या बंधोदय करने के कारण परावर्तमान कहलाती हैं। इनमें अधाती–वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र कर्मों की अधिकांश प्रकृतियों के साथ घाती कर्म दर्शनावरण व मोहनीय की भी प्रकृतियाँ हैं । जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं -
(१) दर्शनावरण--निद्रा, निद्वा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्याद्धि ।
(२) वेदनीय-साता वेदनीय, असाता वेदनीय ।
(३) मोहनीय-अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, संज्वलन कषाय चतुष्क, हास्य, रति,शोक, अरति, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद ।
(४) आयुकर्म-नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आयु ।
(५) नामकर्म- शरीराष्टक की ३३ प्रकृतियां (औदारिक, व क्रिय, आहारक शरीर, औदारिक अंगोपांग आदि तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, एकेन्द्रिय आदि पांच जाति, नरकगति आदि चार गति, शुभ-अशुभ बिहायोगति, चार आनुपूर्वी), आतप, उद्योत, वस दशक, स्थावर दशक ।
(६) गोत्रकर्म-उच्च गोत्र, नीत्र गोत्र ।