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शतक
शब्दार्थ-नाम- नामकर्म की, ध्रुवबंधिमनगं- ध्रुवबंधिनी नो प्रकृतिमा, दमण-दर्शनावरण, पण–पाँच, माग–ज्ञानावरण, विग्ध-- अन्तराय, परयाय---पराघात, भयकुमछमिच्छ—भय. बुगुप्सा और मिथ्यात्व, साप्त-उच्छ्वास नामकर्म, जिण तीर्थकर नामकर्म, गुणतीसा उनतीस, अपरियता-अपरावर्तमान । ___गापाय - नामकर्म को भुवसंधिनी, कृतियां बार दर्शनावरण, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, पराघात, भय, जुगुप्सा, मिथ्यात्व, उच्छ्वास और तीर्थंकर ये उनतीस प्रकृतियां अपरावर्तमान प्रकृतियां हैं ।
विशेषार्थ- गाथा में उनतीस प्रकृतियों के नाम गिनाये हैं, जो अपरावर्तमान है । ये उनतीस प्रकृतियां किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा बंध-उदय दोनों को रोक कर अपना बन्ध, उदय और बंध-उदय को नहीं करने के कारण अपरावर्तमान कहलाती हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं
(१) मामारण-मति, श्रत, अवधि, मनपर्याय, केवलज्ञानावरण (२) कशंनावरग-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शनावरण । (३) मोहनीय-भय, जुगुप्सा, मिथ्यात्व ।
(४) नामकर्म - वर्णं चतुष्क, तेजस, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपधात, पराघात, उच्छ्वास, तीर्थकर ।
(५) अन्तराय -- दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय ।
मिथ्यात्व को अपरावर्तमान प्रकृति मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है कि सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के उदय में मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है । ये दोनों ही मिथ्यात्व के उदय की विरोधिनी प्रकृतियां हैं । अतः मिथ्यात्व को अपरावर्तमान प्रकृति नहीं मानना चाहिये ।