Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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किसी के किसी समय नहीं भी होता है । अतएव इन दोनों को अध्रुबोदया माना है।
दर्शनावरण कर्म के भेद निद्रा आदि पांच निद्रायें अध्रवोदया इसलिये मानी जाती हैं कि इनका उदय कभी होता है और कभी नहीं होता है तथा ये निद्रायें परस्पर में विरोधी हैं। यानी एक समय में एक ही निद्रा का उदय होता है। उपघात नामकर्म का उदय किसी जीव को कभी-कभी होता है । अतः वह अध्रुवोदयी है 1
मिश्र प्रकृति को अध्रुवोदयी इसलिये माना जाता है कि इसकी उदयविरोधिनी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मोहनीय है, जिनके काल में इसका उदय नहीं होता है । सम्यक्त्व मोहनीय का उदय वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि को होता है और वेदक सम्यक्त्व का उदय काल जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागर अधिक चार पूर्व कोटि है । अतः यह अध्रुवोदया है । इस प्रकार है। प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं । इनके उदय का विच्छेद होने पर भी पुनः उदय हो सकता है ।
मिथ्यात्व मोहनीय को अध्रुवोदया प्रकृति न मानने का कारण यह है कि मिथ्यात्व का उदय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में सतत रहता है, एक क्षण के लिये भी नहीं रुकता है। जबकि अध्रुवोदया प्रकृतियों का उदयविच्छेद न होने तक दव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से कभी उदय होता है और कभी नहीं होता है । इसीलिये उनकी अध्रुवोदया संज्ञा है। बंध एवं सवय प्रकृतियों में अनावि-अनन्त आदि मंगों का स्पष्टीकरण
बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुवबंधिनी और ७३ अध्रुवबंधिनी तथा उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से २७ ध्रुवोदया तथा ५५ अधुवोदया हैं। इस प्रकार से बंध एवं उदय प्रकृतियों के ध्रुव, अध्रुव दो