Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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करके शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाता है तब अयंत्रा अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों से नीचे के गुणस्थानों में आता है तब उसके आहार सप्तक की सत्ता बनी रहती है। लेकिन जो अप्रमत्त संयमी मुनि आहारक सप्तक का बंध किये बिना ही ऊपर के गुणस्थानों में जाता है अथवा नीचे के गुणस्थानों में आता है, उसके उन गुणस्थानों में आहारक सप्तक की सत्ता नहीं पायी जाती है । उसी विभिन्नता के कारण आहारक सप्तक की सना सभी गुणस्थानों में विकल्प से मानी गई है।
आहारक सप्तक के समान ही तीर्थंकर नामकर्म भी प्रशस्त प्रकृति है। क्योंकि उसका समय के सद्भाव में होता है और वह भी चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक किसी-किसी विशुद्ध सम्यग्दृष्टि को होता है। लेकिन गुणस्थानों में इसकी सत्ता के सम्बन्ध में गाथा में संकेत किया है कि 'वितिगुणे विणा तित्थं' – दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानों में सत्ता विकल्प से होती है। इसका कारण यह है कि किसी जीव के चौथे से लेकर आठवं गुणस्थान के छठे भाग तक में तीर्थकर प्रकृति का बंध होने पर जब वह शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाना है तो उनमें तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पाई जाती है। लेकिन वह जीव जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर से नीचे के गुणस्थानों में भी आता है तो मिध्यात्व गुणस्थान में भी आता है, लेकिन दूसरे और तीसरे गुणस्थान में नहीं हो आता है, इसीलिये दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष बारह गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रह सकती है। किन्तु कोई जीव विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर भी तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं