Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पानक
करता है तो उसके सभी गुणस्थानों में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नहीं पाई जाती है।
उक्त कथन का फलितार्थ यह है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तो तीर्थकर प्रकृति को सत्ता नहीं पाई जाती है और शेष गुणस्थानों में उसका बंध करने वालों के संभव है लेकिन जिसने बंध ही नहीं किया उसके सत्ता होती ही नहीं । इसीलिये तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता अध्रुव मानी है।
नीचे में मिथ्यात्व मृणस्थान में तीर्थकर प्रकृति के बंधक को आने का कारण यह है कि किसी जीव ने पूर्व में नरकाय बांधी हो और उसके बाद क्षायोपशामक सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथाविध अध्यवः सायों के फलस्वरूप तीर्थंकर प्रकृति का बन्न कर लिया हो तो अंत समय में मम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त कर नरक में जन्म लेता है। इभी कारण तीर्थंकर प्रकृति के बंधक को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति का कथन किया जाता है।
तीर्थंकर प्रकृति वाल को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति होने पर भी वह अन्तमुहुर्त समय तक ही वहां ठहरता है-अंतमुहुत्त भने तित्थे । इसका कारण यह है कि पहले जिस जीव ने नरकायु का वध किया हो और बाद में वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृति का बंध कर ले तो वह जीव मरण काल आने पर सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है और मिश्यात्व दशा में नरक में जन्म लेकर अन्नमुहूर्त के बाद सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यह कथन निकाचित तीर्थकर नामकर्म की अपेक्षा से है। क्योंकि निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता वाला अन्त मुहर्त से अधिक मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं ठहरता है और पर्याप्त होकर तुरन्त सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है।