Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
एकेन्द्रियआदि पंचेन्द्रिय जाति पर्यन्त पाँच जातियों में से एक समय में एक ही जाति का, देवगति आदि चार गतियों में से एक ही गति का बंध होने से जाति ब गति नामकर्म के भेदों को अध्रुवबंधिनी कहा है। इसी प्रकार गुभ या अशुभ विहायोगति में से एक समय में एक का ही बन्ध होता है तथा देवानुपूर्वी आदि चार आनुपूर्वियों में से एक समय में एक का ही बन्ध होता है । अतः इनको अध्रुवबन्धिनी प्रकृति कहा है।
औदारिक आदि शरीर से लेकर आनुपूर्वी नामकर्म के चार भेदों तक में गभित तेतीस प्रकृतियां अपनी-अपनी प्रतिपक्षिणी-विरोधिनी प्रकृतियों सहित होने के कारण अध्रुवबंधिनी हैं।
तीर्थकर नामकर्म का वध सम्यक्त्व सापेक्ष है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सम्यक्त्व के होने पर इसका बंध हो ही जाये । सम्यक्त्व के होने पर भी किसी के बंध होता है और किसी के नहीं बंधता है। इसीलिये अध्रुवबंधी है। पर्याप्तक-प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर उच्छ्वास नामकर्म का बंध होता है, अपर्याप्तकप्रायोग्य प्रकृतियों के बंध होने पर नहीं बंधता है। तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों के बंध होने पर भी उद्योत नामकर्म का बंध किसी को होता है और किसी को नहीं होता है, अतएव उच्छ्वास और उद्योत नामकर्म अध्रुवबंधी हैं।
पृथ्वीकायिक प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होते रहते किसी को . आतप नामकर्म का बंध होता है और किसी को नहीं होता है, अतः अध्रुवबन्धी है । पराघात नामकम पर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर किसी-किसी को बंधता है तथा अपर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर तो किसी को भी नहीं बंधता है, अतः वह अध्रुवबन्धी है।
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