Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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সঙ্গ
अभाव हआ है और न होन वाला है। दूसरा अनादि-सान्त भंग अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव की अपेक्षा घटित होता है। क्योंकि पहले-पहले सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर उसके मिथ्यात्व के उदय का अभाव हो जाता है । लेकिन सम्यक्त्व के छूट जाने व पुनः मिथ्यात्व का उदय होने पर और उसके बाद पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के कारण मिथ्यात्व के उदय का अंत होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व के छूटने के बाद पुन: मिथ्यात्व का उदय होना सादि है और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के कारण उस मिथ्यात्व का उदयविच्छेद होना सान्त है। इस स्थिति में चौथा भंग सादिसान्त मिथ्यात्व में घटित होता है। __लेकिन ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग को छोड़ शेष तीन भंग होते हैं--"धुवबंधिसु तइअधज भंगतिगं ।" यानी ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में पहला - अनादि-अनन्त, दूसरा अनादि सान्त और चौथा सादि-सान्त यह तीन भंग होते हैं । ये तीन भंग इस प्रकार हैं--अभव्य को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है और किसी समय भी अबन्धक नहीं होता है, अतः पहला अनादि-अनन्त भंग होता है तथा भव्य को भी यद्यपि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है, परन्तु गुणस्थान क्रमारोहण के साथ-साथ प्रकृतियों का विच्छेद होता जाता है जिससे दूसरा अनादि सान्त भंग होता है तथा उसी गुणस्थान से आगे के गुणस्थान में आरोहण करते समय अबन्धक होकर अवरोहण के समय पुनः बन्धक हो जाने से सादिबन्ध और पुनः कालान्तर में गुणस्थान क्रमारोहण के समय अबन्धक होगा, इसीलिये उसको चौथा सादि-सान्त भंग होता है।
'दुहावि अघुवा तुरिअभंगा' यानी दोनों प्रकार की अध्रुव प्रकृतियों- अध्रुवबन्धिनी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों में चौथा