Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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संवर्ग त्य
सादि सान्त भंग होता है। क्योंकि उनका बन्ध, उदय अध्रुव है, कभी होता है और कभी नहीं होता है। अध्रुवता के कारण ही उनके बंध और उदय की आदि भी है और अन्त भी है ।
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गो० कर्मकांड में प्रकृतिबंध का निरूपण करते हुए बंध के चार प्रकार बतलाये हैं । सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं
सावी अबन्धबन्धे से अिणावगे
अणादी हु ।
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अभय्वसिहि घुषो मर्वास अद्ध वो बंधो ॥ १२२ ॥
जिस कर्म के बंध का अभाव होकर पुनः वहीं कर्म बंधे, उसे सादि बंध कहते हैं । श्रणि' पर जिसने पैर नहीं रखा है, उस जीव के उस प्रकृति का अनादि बंध होता है । अभव्य जीवों को ध्रुव बंध और भव्य जीवों को अध्रुव बंध होता है ।
यहां ध्रुव और अध्रुव शब्द का अर्थ क्रमशः अनंत और सान्त ग्रहण किया है। क्योंकि अभव्य का बंध अनंत और भव्य का बंध सान्त होता है।
ध्रुवबन्धिनी ४७ प्रकृतियों में उक्त नारों प्रकार के बंध होते हैं तथा शेष अध्रुवबंधिनी ७३ प्रकृतियों में सादि और अत्र यह दो
बंध हैं |
कर्मग्रन्थ में ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीन भंग और गो० कर्मकांड में उक्त चार भंग बतलाये हैं । लेकिन इनमें मतभिन्नता नहीं है । क्योंकि कर्मग्रन्थ में संयोगी भंगों को लेकर कथन किया गया है और गो० कर्मकांड में असंयोगी प्रत्येक भंग का, जैसे अनादि, धुत्र । इसीलिये
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१ जिस गुणस्थान तक जिस कर्म का बन्ध होता है, उस गुणस्थान से आगे के गुणस्थान को यहाँ श्रेणि कहा गया है।