Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
तीन भंग तथा मिथ्यात्व में भी तीन भंग होते हैं। दोनों प्रकार की अध्रुव प्रकृतियों में चौथा भंग होता है। विशेषार्थ- पूर्व में अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त और सादि-सान्त इन चार भंगों का सिर्फ नाम निर्देश किया है। यहां उन भंगों में से कौनसा भंग ध्रुवबंधिनी आदि प्रकृतियों में होता है, यह स्पष्ट करते हैं।
ये भंग ध्रुव, अध्रुव बंध और उदय प्रकृतियों में होते हैं । ध्रुववन्धिनी और अध्रुवबन्धिनो प्रकृतियों के नामों का निर्देश किया जा चुका है और ध्रुवोदयी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों के नाम आगे की गाथा में बतलाये जायेंगे । लेकिन यहां सामान्य से तथा पुनरावृत्ति न होने देने की दृष्टि से बंध प्रकृतियों के साथ उदय प्रकृतियो मे भाभी को होने के बारे में निर्देश कर दिया है ।
सर्वप्रथम 'पढ़मविया ध्रुवउदइमु पद से बतलाया है कि ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त और दूसरा अनादि-सान्त यह दो भंग होते हैं। इसका कारण यह है कि अभब्यों के ध्रुवोदयी प्रकृतियों का कभी भी अनुदय नहीं होता है । अतएव पहला अनादि-अनंत भंग माना गया है । 'भव्य को उदय तो अनादि से होता है, किन्तु बारहदें, तेरहवें गुणस्थान में उनका उदय नहीं हो पाता यानी उदयविच्छेद हो जाता है । इसी कारण ध्रुवोदयी प्रकृतियों में दूसरा अनादि-सांत भंग माना है।
ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला और दूसरा भंग बतलाया है। लेकिन उनमें से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को अपनी विशेषता होने से 'मिच्छम्मि तिन्नि भंगा'-मिथ्यात्व में तीन भंग होते हैं अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, मादि-मान्त । ये भंग इस प्रकार होते हैं कि अभब्य को मिथ्यात्व का उदय अनादि-अनंत है। उसके न तो कभी मिथ्यात्व का