Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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व्युच्छिन्न हो जायेगा, उसे अनादि सान्त कहते हैं । यह भव्य को होता
है ।
(३) साबित- जो आदि सहित होकर अनंत हो। लेकिन यह भंग किसी भी बंध या उदय प्रकृति में घटित नहीं होता है । क्योंकि जो बंध या उदय आदि सहित होगा वह कभी भी अनन्त नहीं हो सकता है । इसीलिये इस विकल्प को ग्राह्य नहीं माना जाता है ।
(४) सावि सन्त- जो बंध या उदय बीच में रुक कर पुनः प्रारम्भ होता है और सन्तर न हो जाता है, उस बंध या उदय को सादि सान्त कहते हैं । यह उपशांत मोह गुणस्थान से च्युत हुए जीवों में पाया जाता है ।
गतक
इस प्रकार से चार भंगों का स्वरूप बतलाकर अब आगे की गाथा में बन्ध और उदय प्रकृतियों में उक्त भंगों को घटाते हैं ।
तइअयज्जभंगतिगं ।
पठमविया धुवजवइसु बुवबंधिसु मिष्ठम्मि तिम्मि भंगा दुहावि अघुया तुरिअभंगा ॥१५॥
शब्दार्थ – पदमविया पहला और दूसरा भंग, धुबउवहसुनवोदयी प्रकृतियों में धुवबंधि- ध्रुवबन्धिनां प्रकृतियों में, तहअवज्म- तीसरे मंग के सिवाय, संगतिगं- तीन भंग होते हैं, मिच्छमि - मिथ्यात्व में, तिम्नि–तीन, मंगा – मंग दुहावि—दोनों प्रकार की अध्वा अध्रुवबंधिनी और अनुषोदय में, तुरिरंगा — चौथा भंग |
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गावार्थ - ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला और दूसरा भंग होता है । ध्रुव-बन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग के अलावा