Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
अरति युगल के बंध के समय हास्य-रति घुगल का बंध संभव नहीं है। इन चार प्रकृतियों का सान्तर बंध होता है।
लेकिन यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि हास्य, रति, अरति, शोक, यह चारों प्रकटियां पठे मृणस्थान नल ही अवबन्धिनी हैं। छठे गणस्थान में शोक और अरति का बन्धविच्छेद हो जाने पर आगे हास्य और रति का निरंतर बंध होता है, जिससे वे ध्रुवबंधिनी हो जाती हैं।
स्त्री वेद, पुरुष बेद और नपुंसक वेद में से एक समय में किसी एक वेद का बंध होता है । गुणस्थान की अपेक्षा नपुसक वेद पहले गुणस्थान में, स्त्री वेद दूसरे गुणस्थान तक बंधता है । उसके बाद आगे के गुणस्थानों में पुरुषवेद का बंध होता है।
आयुकर्म के देवायु, मनुष्यायु, तिथंचायु और नरकायु इन चार भेदों में से एक भव में एक ही आयु का बंध होता है । इसीलिये इनको अध्रुवबन्धी कहा है।
इस प्रकार तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबन्धिनी समझना चाहिये । जिनमें वेदनीय की दो, मोहनीय की सात, आमुकर्म की चार, नाम कर्म की अट्ठावन और गोलकर्म की दो प्रकृतियां शामिल हैं। बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुववन्धिनी और ७३ अभूवबन्धिनी हैं । ४७७३ का कुल जोड़ १२० होता है। बंध, उचय प्रकृतियों के अनावि-अनन्त आदि भंग
ग्रन्थलाघव की दृष्टि से क्रमप्राप्त ध्रुवोदया और अध्रुबोदया प्रकृतियों के नामों को न बताकर कर्मबंध और कर्मोदय की कितनी दशायें होती हैं, इस जिज्ञासा के समाधान के लिये पहले भंगों को बतलाते हैं। जो बंध के भंगों के नाम हैं, वही उदय के भंगों के भी