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संक्रमकरण ]
[ १५ गाथार्थ – आठ और चार अधिक बीस अर्थात् अट्ठाईस चौबीस और सत्रह, सोलह और पन्द्रह इन पाँच स्थानों को छोड़ कर शेष तेईस संक्रमस्थान मोहनीय के होते हैं।
विशेषार्थ – आठ अधिक बीस अर्थात् अट्ठाईस और चार अधिक बीस अर्थात् चौबीस तथा सत्रह, सोलह और पन्द्रह इन पाँच स्थानों को छोड़कर शेष एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस पच्चीस, छब्बीस और सताईस प्रकृति वाले तेईस स्थान मोहनीयकर्म के संक्रमस्थान होते हैं । वे इस प्रकार हैं
__ अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का पतद्ग्रह है, इसलिये मिथ्यात्व के अतिरिक्त शेष सत्ताईस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों मिथ्यात्व में संक्रांत होती हैं (१-१) तथा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वलना होने पर सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व का पतद्ग्रह है। इसलिये उसके सिवाय शेष छब्बीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं (२-१)। सम्यग्मिथ्यात्व के भी उद्वलित हो जाने पर छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के पच्चीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं (३१)। अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि जो छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाला है, उसके पच्चीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं। क्योंकि उसके मिथ्यात्व का संक्रम नहीं होता है। वह मिथ्यात्व चारित्रमोहनीय में संक्रांत नहीं होता है क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता है (३-२)।
अथवा अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले उपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात एक आवली से ऊपर वर्तमान जीव के सम्यक्त्व में मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का संक्रम होता है। इसलिये वह सम्यक्त्वप्रकृति पतद्ग्रह है। इस कारण उसे छोड़कर शेष सत्ताईस प्रकृतियों का संक्रम होता है (१-२) तथा अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाले उसी औपशमिक सम्यग्दृष्टि के एक आवली काल के भीतर वर्तमान रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रांत नहीं होता है। क्योंकि मिथ्यात्व के पुद्गल ही सम्यक्त्व के साथ होने वाली विशुद्धि के प्रभाव से सम्यग्मिथ्यात्वस्वरूप परिवर्तित हो जाते हैं। क्योंकि अन्य प्रकृति रूप से परिणामान्तर को प्राप्त होना संक्रम कहलाता है - अन्यप्रकृतिरूपतया परिणामान्तरापादनं च संक्रमः और संक्रमावलिकागत पुद्गल सर्वकरणों के अयोग्य होता है। अतः इस नियम के अनुसार सम्यक्त्व लाभ से एक आवलिका के भीतर वर्तमान जीव के द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व में संक्रमित नहीं होता है किन्तु केवल मिथ्यात्व ही संक्रमित किया जाता है। इसलिसे सम्यग्मिथ्यात्व के निकाल देने पर शेष छब्बीस प्रकृतियां संक्रात होती हैं (२-२)।
मोहनीय के संक्रम में चौबीस प्राकृतिक स्थान नहीं होता है क्योंकि चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाला सम्यग्दृष्टि जीव गिर कर मिथ्यात्व को प्राप्त होता हुआ यद्यपि अनन्तानुबंधी कषायों को