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[ कर्मप्रकृति संक्रम करते हैं । ये दोनों ही संक्रम और पतद्ग्रह स्थान कादाचित्क होने से सादि और अध्रुव हैं। इससे आगे न तो संक्रम होता है और न पतद्ग्रहता ही होती है।
दर्शनावरणकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों को बतलाने के पश्चात् अब वेदनीय और गोत्र कर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का प्रतिपादन करते हैं। इसके लिये गाथा में कहा है - अन्नयरस्सि ....... इत्यादि। जिसका अर्थ यह है कि वेदनीय और गोत्रकर्म में किसी एक प्रकृति के बध्यमान होने पर अन्यतर – कोई एक अबध्यमान प्रकृति संक्रमित होती है, वह उसकी पतद्ग्रह है और दूसरी प्रकृति संक्रमस्थानरूप है। इनमें सातावेदनीय के बन्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को आदि लेकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानपर्यन्त साता और असाता वेदनीय की सत्ता वाले जीवों के सातावेदनीय पतद्ग्रह है और सातावेदनीय संक्रमस्थान है। किन्तु असातावेदनीय का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्तसंयतगुणस्थानपर्यन्त साता असाता वेदनीय की सत्ता वाले जीवों के असातावेदनीय पतद्ग्रह है और सातावेदनीय संक्रमस्थान है। ये दोनों साता और असाता रूप संक्रम और पतद्ग्रह सादि और अध्रुव हैं। क्योंकि इनका पुनः पुनः परिवर्तन होकर बंध होता रहता है तथा मिथ्यादृष्टि आदि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानपर्यन्त उच्चगोत्र का बंध करने वाले और उच्च नीच गोत्र की सत्ता वाले जीवों के उच्चगोत्र पतद्ग्रह है और नीचगोत्र संक्रमस्थान रूप है तथा नीचगोत्र का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि
और सास्वादन गुणस्थानवर्ती उच्च नीच गोत्र की सत्ता वाले जीवों के नीचगोत्र पतद्ग्रह है और उच्चगोत्र संक्रमस्थान रूप है। ये दोनों ही उच्च और नीच गोत्र रूप संक्रम और पतद्ग्रह स्थान पहले के समान (वेदनीयकर्म के समान) सादि और अध्रुव जानना चाहिये। मोहनीयकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थान
इस प्रकार आवरणद्विक, वेदनीय और गोत्र कर्मों के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का प्रतिपादन करने के अनन्तर अब मोहनीयकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का विचार करते हैं। लेकिन इसके भी पूर्व संक्रम और असंक्रम स्थानों को बतलाते हैं -
अट्ठचउरहियबीसं, सत्तरसं सोलसं च पन्नरसं। .
वजिय संकमठाणाइं होंति तेवीसई मोहे ॥१०॥ शब्दार्थ – अट्ठचउरहियवीसं – आठ और चार अधिक बीस, सत्तरसं - सत्रह, सोलसं – सोलह, च - और, पन्नरसं – पन्द्रह, वज्जिय – छोड़कर, संकमठाणाई – संक्रम स्थान, होंति – होते हैं, तेवीसई - तेईस, मोहे – मोहनीयकर्म में।
१. सयोगी केवली गुणस्थान तक भी।