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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गाथाएँ भी उद्धृत हैं। अनेक स्थानों पर पाठान्तर भी दिये गये हैं। प्रस्तुत टीका में निम्नलिखित ग्रंथों एवं ग्रंथकारों के नाम निर्दिष्ट है : विशेषावश्यकभाष्य, उत्तराध्ययनचूणि, आवश्यकचूर्णि, सप्तशतारनयचक्र, निशीष, बृहदारण्यक, उत्तराध्ययनभाष्य, स्त्रीनिर्वाणसूत्र, महामति ( जिनभद्र), भर्तृहरि, वाचक सिद्धसेन, अश्वसेन वाचक, वात्स्यायन, शिवशर्मन्, हारिल वाचक, गंधहस्तिन्, जिनेन्द्रबुद्धि । द्रोणसूरिविहित ओघनियुक्ति-वृत्ति :
द्रोणसूरि अथवा द्रोणाचार्य पाटन-जनसंघ के प्रमुख अधिकारी थे। ये विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में विद्यमान थे। इन्होंने ओघनियुक्ति ( लघुभाष्यसहित ) पर वृत्ति लिखो एवं अभयदेवसूरिकृत कई टीकाओं का संशोधन किया।
द्रोणाचार्यकृत ओपनियुक्ति-वृत्ति की भाषा सरल एवं शैली सुगम है । आचार्य ने मूल पदों के अर्थ के साथ ही साथ तद्गत विषय का भी शंका-समाधानपूर्वक संक्षिप्त विवेचन किया है । यत्र-तत्र प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरणों का भी प्रयोग किया गया है । वृत्ति का ग्रंथमान लगभग ७००० श्लोक-प्रमाण है। अभयदेवसूरिकृत टीकाएँ : ____ अभयदेवसूरि नवांगीवृत्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने निम्नोक्त आगमों पर टोकाएँ लिखी है : नौ अंग-१. स्थानांग, २. समवायांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ), ४. ज्ञाताधर्मकथा, ५. उपासकदशा, ६. अंतकृद्दशा, ७. अनुत्तरोपपातिक, ८. प्रश्नव्याकरण, ९. विपाक और १०. औपपातिक उपांग । इनके अतिरिक्त प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी, पंचाशकवृत्ति, जयतिहुअणस्तोत्र, पंचनिम्रन्थी और सप्ततिकाभाष्य भी इन्हीं की कृतियाँ हैं । इन सब रचनाओं का ग्रन्थमान लगभग ६०००० श्लोकप्रमाण है । अभयदेवकृत टीकाएँ शब्दार्थप्रधान होते हुए भी वस्तुविवेचन की दृष्टि से भी उपयोगी हैं। इनकी सभी टीकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
अभयदेवसरि, जिनका बाल्यकाल का नाम अभय कुमार था, धारानिवासी सेठ धनदेव के पुत्र थे। इन्हें वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने दीक्षित किया था। योग्यता प्राप्त होने पर वर्धमानसूरि के आदेश से इन्हें आचार्यपदवी प्रदान की गई । वर्धमानमूरि के स्वर्गवास के बाद ये धवलक-धोलका नगर में भी रहे जहाँ इन्हें रक्तविकार की बीमारी हुई जो कुछ समय बाद शान्त हो गई । अभयदेव का जन्म-अनुमानतः वि० सं० १०८८, दीक्षा वि० सं० ११०४, विद्याभ्यास
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