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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गया है। संभ्रम, भय, आपत्, सहसा, अनाभोग, अनात्मवशता, दुश्चिंतित, दुर्भाषित, दुश्चेष्टित आदि अपराध-स्थान मिश्र कोटि के हैं । भाष्यकार ने इनकी विशेष व्याख्या की है। विवेक :
विवेक-प्रायश्चित्त के अपराध-स्थानों का विवेचन करते हुए आचार्य ने पिण्ड, उपधि, शय्या, कृतयोगी, कालातीत, अध्वातीत, शठ, अशठ, उद्गत, अनुद्गत, कारणगृहीत आदि पदों की व्याख्या की है ।२ व्याख्या बहुत संक्षिप्त एवं सारग्राही है । इसके बाद व्युत्सर्ग-प्रायश्चित्त का व्याख्यान प्रारंभ होता है । व्युत्सर्ग :
पंचम प्रायश्चित्त व्युत्सर्ग के अपराध-स्थानों का विश्लेषण करने के लिए भाष्यकार ने मूल सूत्र में निर्दिष्ट गमन, आगमन, विहार, श्रुत, सावद्यस्वप्न, नाव, नदी, सन्तार आदि पदों का संक्षिप्त व्याख्यान किया है। इसके बाद तपः प्रायश्चित्त के अपराध-स्थानों की व्याख्या प्रारंभ होती है।
तप :
तप को चर्चा के प्रारंभ में ज्ञान और दर्शन के आठ-आठ अतिचारों का विचार किया गया है। ज्ञान के आठ अतिचार निम्नोक्त आठ विषयों से सम्बन्धित हैं : १. काल, १. विनय, ३. बहुमान, ४. उपधान, ५. अनिह्नवन, ६. व्यञ्जन, ७. अर्थ, ८. तदुभय । दर्शन के अतिचारों का सम्बन्ध निम्न आठ विषयों से है : १. निःशंकित, २. निष्कांक्षित, ३. निविचिकित्सा, ४. अमूढदृष्टि, ५. उपबृंहण, ६. स्थिरीकरण, ७. वात्सल्य, ८. प्रभावना। इसके बाद छः व्रतरूप चारित्र के अतिचारों का वर्णन किया गया है।५ चारित्रोद्गम का स्वरूप बताते हुए उद्गम के सोलह दोषों का भी विवेचन किया गया है । ये सोलह दोष इस प्रकार हैं : १. आधाकर्म, २. औद्देशिक, ३. पूर्तिकर्म, ४. मिश्रजात, ५. स्थापना ६. प्राभृतिका, ७. प्रादुष्करण, ८. क्रीत, ९. प्रामित्य, १० परावर्तित, ११. अभ्याहृत, १२. उद्भिन्न, १३. मालाहृत, १४. आच्छेद्य, १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवपूरक । उद्गम के बाद उत्पादना का स्वरूप बताया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव--इन चार प्रकार के निक्षेपों द्वारा उत्पादना का विश्लेषण किया गया है। इसके भी सोलह दोष हैं : १. धात्रीदोष, २. दूतीदोष, ३. निमित्तदोष, ४. आजीवदोष, ५. वनीपकदोष, ६. चिकित्सादोष, ७. क्रोधदोष,
१. गा० ९३३-९५४. ४. गा०९९८-१०६८. ७. गा० १०९५-७.
२. गा० ९५५-९७१. ३. गा० ९७२-९९७. ५. गा० १०६९-१०८६, ६. गा० १०९८-१२८६, ८. गा० १३१३-८.
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