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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
है । व्याख्यान केवल शब्दार्थं तक ही सीमित नहीं है अपितु उसमें सम्बद्ध विषय का विस्तृत विवेचन भी है । वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने श्री वीर को नमस्कार किया है तथा भगवती के दुर्गमपदों की व्याख्या उद्धृत करने की इच्छा प्रकट की है : "
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श्रीवीरं नमस्यित्वा तत्त्वावगमाय सर्वसत्त्वानाम् । व्याख्या दुर्गपदानामुद्भियते भगवती वृत्त ेः ॥ १ ॥
अन्त में निम्नलिखित श्लोक हैं : २
भद्रं भवतु सङ्घाय, श्रीमच्छ्री जिनशासने | साक्षात् भगवती व्याख्यादेवतासुप्रसादतः ||१|| अज्ञेन मया गदितं समयविरुद्धं यदङ्गटीकायाम् । सद्यः प्रसद्य शोध्यं शोध्यं गुरुवद्गुरुधीधनैर्गुरुभिः ||२||
व्याख्याकार दानशेखरसूरि जिनमाणिक्यगणि के शिष्य अनन्तहंसगणि के शिष्य हैं । प्रस्तुत व्याख्या तपागच्छनायक लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य सुमतिसाधुसूरि के शिष्य हेमविमलसूरि के समय में संकलित की गई है । जैसा कि पचीसवें शतक के विवरण के अंत में एक उल्लेख है : इति श्रीतपागच्छनायक श्रीलक्ष्मीसागरसूरिशिष्य श्री सुमतिसाधुसूरिशिष्य श्रीहेमविमलसूरिविजय राज्ये शतार्थिश्रीजिनमाणिक्यगणि शिष्य श्रीअनन्तहंसगणिशिष्य श्रोदान शेखरगणिसमुद्धृतभगवतीलघुवृ त्तौपञ्चविंशतितमशतकविवरणसम्पूर्णम् कल्पसूत्र - कल्प प्रदीपिका :
दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन कल्पसूत्र की प्रस्तुत वृत्ति विजयसेनसूरि के शिष्य संघविजयगाणि ने वि० सं० १६७४ में लिखी । उस समय विजयदेवसूरि का धर्मशासन प्रवर्तमान था । वि० सं० १६८१ में कल्याणविजयसूरि के शिष्य धनविजयगणि ने इसका संशोधन किया । वृत्ति का ग्रंथमान ३२५० श्लोकपरिमाण है । प्रशस्ति में ग्रन्थरचना के काल, ग्रंथकार के नाम, संशोधन के नाम, संशोधक के काल, ग्रन्थमान आदि का उल्लेख इस प्रकार है :
वेदाद्रिरसशीतांशुमिताब्दे श्रीमद्विजयसे नाख्य सूरिपादाब्जसेविना
विक्रामर्कतः ।
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१. ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम सन् १९३५.
२. पृ० २९८ ( २ ).
३. मुक्तिविमल जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद, सन् १९२५.
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