________________
अन्य टीकाएँ
४२९
अभयदेवसूरि ने भी इस प्रश्न का समाधान लगभग इसी प्रकार किया है।'
वृत्ति के अन्त में प्रशस्ति है जिसमें वृत्तिकार की गुरु-परम्परा की लंबी सूची है जो आनन्दविमलसूरि से प्रारम्भ होती है । प्रशस्ति में यह भी बताया गया है कि वृत्तिकार ज्ञानविमलसूरि का दूसरा नाम नयविमलगणि भी है। ये तपागच्छीय धीरविमलगणि के शिष्य है। वृत्ति-लेखन में कवि सुखसागर ने पूरी सहायता दी है तथा तरणिपुर में ग्रन्थ की प्रथम प्रति इन्हीं ने लिखी है। वृत्ति का ग्रन्थमान ७५०० श्लोक प्रमाण है। यह वृत्ति वि० सं० १७९३ के कुछ ही वर्ष पूर्व (संभवतः वि० सं० १७७३ के आस पास)२ लिखी गई है। उत्तराध्ययनदीपिका :
यह टीका खरतरगच्छीय लक्ष्मीकीर्तिगणि के शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि की बनाई हुई है। टीका सरल एवं सुबोध है। इसमें उत्तराध्ययनसूत्र के प्रत्येक पद की शंका-समाधनपूर्वक व्याख्या की गई है। प्रारम्भ में टीकाकार ने पंच परमेष्ठी का मंगलाचरण के रूप में स्मरण किया है । तदनन्तर भगवान् महावीर एवं पाश्वनाथ को भक्ति सहित वंदन किया है। इसके बाद उन्होंने बताया है कि यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक वृत्तियाँ-टीकाएँ विद्यमान हैं तथापि मैं मंदाधिकारियों के हृदय-सदनों में बोध का प्रकाश करने वाली इस दीपिका की रचना करता हूँ । इसके बाद अपने नाम (लक्ष्मीवल्लभ) का उल्लेख करते हुए (लक्ष्म्युपपदस्तु वल्लभः ) चौदह सौ बावन गणधरों का स्मरण करके आचार्य ने सूत्र का व्याख्यान प्रारम्भ किया है । व्याख्यान को विशेष स्पष्ट करने के लिए प्रसंगवश कथानकों का भी उपयोग किया है। इस प्रकार के कथानकों की संख्या काफी बड़ी है। सभी कथानक संस्कृत में हैं । इस टीका में उद्धरण नहीं के बराबर हैं। भगवती-विशेषपदव्याख्या :
दानशेखरसूरि द्वारा संकलित प्रस्तुत वृत्ति का नाम विशेषपदव्याख्या लघुवृत्ति अथवा विशेषवृत्ति है । इसमें वृत्तिकार ने प्राचीन भगवतीवृत्ति के आधार पर भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति के कठिन पदों का व्याख्यान किया
१. देखिए-अभयदेवसूरिकृत प्रश्नव्याकरण-वृत्ति, पृ० १. २. द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना, पृ० ५. ३. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, वि० सं० १९३६. (आ) गुजराती अनुवादसहित-हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन
१९३४-८ (अपूर्ण).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org