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शिष्य शान्तिसागरगणि ने वि. सं. १७०७ में लिखो है। इस शब्दार्थप्रधान वृत्ति का ग्रंयमान ३७०७ श्लोकप्रमाण है। प्रारंभ में वृत्तिकार ने वर्धमान जिनेश्वर को नमस्कार किया है तथा संक्षिप्त एवं मृदु रुचिवालों के लिए प्रस्तुत वृत्ति की रचना का संकल्प किया है। अन्त में वृत्ति-रचना के समय, स्थान, वृत्तिप्रमाण आदि का निर्देश किया है :
श्रीमविक्रमराजान् मुनिगगनमुनोन्दुभिः प्रमितवर्षे । विजयदविजयदशम्यां श्रीपत्तनपत्तने विदृब्धेयम् ।। ५ ॥ श्लोकानां सङ्ख्यानं सप्तत्रिंशच्छतैश्च सप्ताः ।
वृत्तावस्यां जातं प्रत्यक्षरगणनया श्रेयः ॥ ६॥ प्रशस्ति में तपागच्छ-प्रवर्तक जगच्चन्द्रसूरि से लगा कर वृत्तिकाराशान्ति. सागर तक को परम्परा के गुरु-शिष्यों की गणना की गई है।
कल्पसूत्र-टिप्पणक : .. इस टिप्पणक' के प्रणेता आचार्य पृथ्वीचन्द्र हैं। टिप्पणक के प्रारम्भ में निम्न श्लोक हैं :
प्रणम्य वोरमाश्चर्यसेवधिं विधिदर्शकम् । श्रीपर्युषणाकल्पस्य, व्याख्या काचिद् विधीयते ॥ १॥ पञ्चमाङ्गस्य सद्वृत्तेरस्य चोद्धृत्य चूर्णितः। किञ्चित् कस्मादपि स्थानात्, परिज्ञानार्थमात्मनः ॥ २॥ टिप्पणक के अन्त में आचार्य का परिचय इस प्रकार है :
चन्द्रकुलाम्बरशशिनश्चारित्रश्रीसहस्रपत्रस्य श्रीशीलभद्रसूरेगुणरत्नमहोदधेः शिष्यः ॥१॥ अभवद् वादिमदहरषटतर्काम्भोजबोधनदिनेशः । श्रीधर्मघोषसूरिर्बोधितशाकम्भरीनृपतिः
॥२॥ चारित्राम्भोधिशशी त्रिवर्गपरिहारजनितबुधहर्षः । दर्शितविधिः शमनिधिः सिद्धान्तमहोदधिप्रवरः ।। ३ ।। बभूव श्रीयशोभद्रसरिस्तच्छिष्यशेखरः तत्पादपद्ममधुपोऽभूच्छी देवसेनगणिः
॥
४
॥
१. तपगणविधुः श्रीजगच्चन्द्रसूरिः--लो. १ २. मुनि श्री पुण्यविजयजो द्वारा सम्पादित कल्पसूत्र में मुद्रित : साराभाई मणि
लाल नवाब, अहमदाबाद, सन् १९५२.
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