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लोकभाषाओं में विरचित व्याख्याएँ
४३७ कुछ समय तक तो उनके माता-पिता ने उसे दीक्षा अंगीकार करने की अनुमति न दो किन्तु अन्ततोगत्वा उन्हें अनुमति देनी ही पड़ी। इतना ही नहीं अपितु पुत्र के साथ पिता ने भी दीक्षा ग्रहण की। उनकी यह दीक्षा यतिवर्ग (शिथिलाचारी त्यागी) की दीक्षा थी, न कि मुनिवर्ग ( शुद्ध आचार वाले साधु ) की । यति धर्मसिंह को धीरे-धीरे शास्त्रों का अच्छा अभ्यास हो गया। उनके विषय में प्रसिद्ध है कि वे दोनों हाथों से ही नहीं, दोनों पैरों से भी लेखनी पकड़कर लिख सकते थे । ज्यों-ज्यों धर्मसिंह का शास्त्रज्ञान बढ़ता गया त्यों-त्यों उन्हें प्रतीत होने लगा कि हमारा आचार शास्त्रों के अनुकूल नहीं है । हमें यह वेष त्याग कर शुद्ध मुनिव्रत का पालन करना चाहिए। उन्होंने अपना यह विचार अपने गुरु शिवजी के सामने रखते हुए बड़ी नम्रता से कहा :
___ “कृपालु गरुदेव ! भगवान महावीर ने भगवती सूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति) के बीशवें शतक में स्पष्टरूप से फरमाया है कि २१००० वर्ष तक यह मुनिमार्ग चलता रहेगा। ऐसा होते हुए भी हम लोग पंचम काल ( वर्तमान काल ) का बहाना कर मुनिमार्ग के अनुकूल आचार का पालन करने में शिथिलता का परिचय दे रहे हैं । यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। मनुष्यभव अमूल्य चिन्तामणि है। हमें कायरों का मार्ग छोड़कर सुरों का मार्ग ग्रहण करना चाहिए। आप जैसे समर्थ और विद्वान् पुरुष भी यदि पामर प्राणियों की भांति साहसहीन हो जाएँ तो अन्य लोगों का तो कहना ही क्या ? आप सर्व प्रकार के आलस्य का त्याग कर सिंह की भाँति अपने अतुल पराक्रम का परिचय दीजिए। आप स्वयं सच्चे मुनिमार्ग पर चलिए एवं औरों को चलाइए। ऐसा करने से ही जिन-शास्त्र की शोभा एवं स्वात्मा का कल्याण है। सिंह कायर नहीं होता, सूर्य में अन्धकार नहीं रहता, दाता कृपण नहीं होता। जिस प्रकार अग्नि में कभी शीतलता नहीं होती उसी प्रकार ज्ञानी में कभी राग नहीं होता। आप मुनिमार्ग पर चलने के लिए तैयार हो जाइए। मैं भी आपके पीछे-पीछे उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हूँ। संसार को छोड़ने के बाद फिर मोह कैसा ?"
धर्मसिंह का यह कथन सुनकर शिवजी सोचने लगे कि धर्मसिंह का कहना अक्षरशः सत्य है किन्तु मैं वैसा आचरण करने में असमर्थ रहा हूँ। दूसरी ओर वैसा न करने पर ऐसा विद्वान् और विनयी शिष्य गच्छ छोड़कर चला जाएगा और इससे गच्छ की असह्य हानि होगी। इन दोनों दृष्टियों का सन्तुलन कर शिवजी कहने लगे कि मैं इस समय अपने पद का त्याग करने में असमर्थ हूँ। तुम धैर्य रखो और निरन्तर ज्ञानार्जन करते रहो । थोड़े समय बाद गच्छ की समुचित
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