________________
लोकभाषाओं में विरचित व्याख्याएँ
४३९
पछाड़कर परलोक में पहुंचा दिया है । यतिजी ! क्या आप भी उनकी संगति करना चाहते हैं ?" ___ “भाई ! तुम्हारा कथन कदाचित् ठीक है। किन्तु मुझे तो मेरे गुरु की आज्ञा है, अतः यहाँ रहना ही पड़ेगा। तुमने मुझे आनेवाले संकट से सावधान किया इसके लिए धन्यवाद, किन्तु भय किसे कहते हैं इसे मैं जानता ही नहीं। 'भय' शब्द मेरे कोश में ही नहीं है ।" धर्मसिंह ने प्रत्युत्तर दिया :
"मरने दो इसे ! अपनो आयु कम होने से ही यह ऐसा करता हो तो कौन जाने ?" एक अन्य मुसलमान ने उस मुसलमान के कान में सलाह दो । धर्मसिंह को वहां रहने की अनुमति मिल गई ।
जैसे-जैसे संध्या व्यतीत होती गई वैसे-वैसे दरयाखान का स्थान निर्जन होता गया । अन्ततोगत्वा उस पूरे प्रदेश में अकेले धर्मसिंह ही रह गये। उन्होंने रजोहरण से भूमि स्वच्छ कर अपना आसन बिछाया और स्वाध्याय में मग्न हुए । एक प्रहर रात्रि व्यतीत हुई होगी कि दरयाखान का यक्ष वहाँ आया । धर्मसिंह उस समय स्वाध्याय में लोन थे। उनके मुख से पूर्वअश्रुत शब्दोच्चारण सुनकर यक्ष को कुछ आश्चर्य हुआ। उसे वह पुरुष अन्य पुरुषों से कुछ विलक्षण प्रतीत हुआ। वह अपने क्रोधी स्वभाव को भूल कर भक्तिपूर्वक धर्मसिंह की सेवा में प्रवृत्त हो गया। इतना ही नहीं, उनके उपदेश से उसने उस समय से किसी भी मनुष्य को न सताने का संकल्प किया । यक्ष चला गया । धर्मसिंह अपने स्वाध्यायध्यान में संलग्न रहे। थोड़ी नींद लेने के बाद पुनः उसी कार्य में प्रवृत्त हुए । धीरे-धीरे प्रभात हुआ ।
आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो धर्मसिंह अपने गुरु के पास पहुंचे। वन्दना आदि करने के बाद सारी घटना गुरु को सुना दी । शिष्य के इस शौर्यपूर्ण आचरण से गुरु बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें विश्वास हो गया कि धर्मसिंह बड़ा पराक्रमी और बुद्धिशाली है। यह अच्छी तरह संयम का पालन कर सकेगा। इससे जैन शासन का उद्योत होगा। यह सोचकर उन्होंने धर्मसिंह को शुद्ध संयम धारण कर विचरने की अनुमति प्रदान की। धर्मसिंह अपनी विचारधारा के अन्य यतियों को साथ में लेकर दरियापुर दरवाजे के बाहर ईशानकोण के उद्यान में पहुँचे तथा नवसंयम ग्रहण किया। यह घटना वि० सं० १६८५ की है। धर्म सिंह का धर्मोपदेश प्रायः दरियापुर दरवाजे में ही हुआ करता था अतः उनका सम्प्रदाय भी 'दरियापुरी सम्प्रदाय' के रूप में ही प्रसिद्ध हुआ। १. संवत सोल पचासिए, अमदावाद मझार ।
शिवजी गुरू को छोड़ के, धर्मसि हुआ गच्छबहार ॥-एक प्राचीन कविता,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org