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पंचदश प्रकरण लोकभाषाओं में विरचित व्याख्याएँ
आगामों की संस्कृत टीकाओं की बहुलता होते हुए भी बाद के आचार्यों ने जनहित की दृष्टि से यह आवश्यक समझा कि लोकभाषाओं में भी सरल एवं सुबोध आगमिक व्याख्याएँ लिखी जाएं। इन व्याख्याओं का प्रयोजन किसो विषय की गहनता में न उतर कर साधारण पाठकों को केवल मूल सूत्रों के अर्थ का बोध कराना था। इसके लिए यह आवश्यक था कि इस प्रकार की व्याख्याएँ साहित्यिक भाषा अर्थात् संस्कृत में न लिखकर लोकभाषाओं में लिखी जाएँ। परिणामतः तत्कालीन अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में बालावबोधों की रचना हुई । इस प्रकार की शब्दार्थात्मक टीकाओं से राजस्थानी और गुजराती आगमप्रेमियों को विशेष लाभ हुआ। ऐसे बालावबोधों की रचना करनेवालों में विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में होनेवाले लोंकागच्छोय (स्थानकवासी) टबाकार मुनि धर्मसिंह का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतो ), जीवाभिगम, प्रज्ञापना, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को छोड़ स्थानकवासीसम्मत शेष २७ आगमों के टबे ( बालावबोध ) लिखे हैं।' कहींकहीं सूत्रों का प्राचीन टीकाओं के अभिप्रेत अर्थ को छोड़कर स्वसम्प्रदायसम्मत अर्थ किया है जो स्वाभाविक है । साधुरलसूरि के शिष्य पार्वचन्द्रगणि ( वि.सं. १५७२) रचित आचारांग, सूत्रकृतांग आदि के बालावबोध भी उल्लेखनीय हैं। ये भी गुजराती में है। टबाकार मुनि धर्मसिंह :
प्रसिद्ध टबाकर मुनि धर्मसिंह' काठियावाड स्थित जामनगर में रहनेवाले दशाश्रीमाली वैश्य जिनदास के पुत्र थे । धर्मसिंह का जन्म माता शिवा के गर्भ से हुआ था। जिस समय धर्मसिंह की आयु १५ वर्ष की थी उस समय वहाँ के लोकागच्छीय उपाश्रय में लोकागच्छाधिपति आचार्य रत्नसिंह के शिष्य देवजी मुनि का पदार्पण हुआ। उनके व्याख्यान सुनने वालों में धर्मसिंह भी था । इस पर उनके उपदेश का अच्छा प्रभाव पड़ा और उसे तीन वैराग्य उत्पन्न हुआ।
१. ऐतिहासिक नोंध (वा. मो. शाह), पृ० १२३ ( हिन्दी संस्करण ). २. ऐतिहासिक नोंध के आधार पर, पृ० १०५-१२६.
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