Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 437
________________ ४२८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास से वृत्तिकार ने परमेश्वर पाव, प्रभु महावीर, जैन प्रवचन तथा ज्ञानदाता गुरु को सादर प्रणाम किया है । नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरिविरचित प्रश्नव्याकरण वत्ति की कृतज्ञता स्वीकार करते हुए मंद मतिवालों के लिए इसी सूत्र का सुखबोधक विवरण प्रस्तुत करने का संकल्प किया हैं : रम्या नवाङ्गवृत्तीः श्रीमदभयदेवसूरिणा रचिताः। ताः सद्भिर्वाच्यमानाः, सूदशां तत्त्व प्रबोधकराः।।७।। सम्प्रति भानुद्युतय इवासतेऽनल्पज़ल्पगम्भीराः।। परमवनिवेश्मसंगतपदार्थमाभाति दीपिकया ।।८।। मत्तो मन्दमतीनां, स्वीयान्येषां परोपकाराय । विवरणमेतत् सुगुमं, शब्दार्थ भवतु भव्यानाम् ।।९।। 'प्रश्नव्याकरण' अथवा 'प्रश्नव्याकरणदशा' का शब्दार्थ बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिसमें प्रश्न अर्थात अंगुष्ठादिप्रश्न विद्या का व्याकरण अर्थात् कथनवर्णन किया गया हो वह प्रश्नव्याकरण है। कहीं-कहीं इस सूत्र का नाम प्रश्नव्याकारणदशा भी है। जिसमें इन विद्याओं का प्रतिपादन करने वाले दस अध्ययन हैं वह प्रश्नव्याकरणदशा है । इस प्रकार का ग्रंथ भूतकाल में था। इस समय इस ग्रंथ में आस्रव और संवर का ही वर्णन उपलब्ध है। पाँच अध्याय हिंसा, मृषा, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहसंबंधी है और पाँच अध्याय अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहसम्बन्धी है । ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि पूर्वाचार्यों ने यह समझ कर कि प्रश्नादिविद्याएँ पाँच प्रकार के आस्रव का त्याग कर पाँच प्रकार के संवररूप संयम में स्थित महापुरूषों को ही प्राप्त हो सकती हैं, वर्तमान युग की दृष्टि से इसमें संयम के स्वरूप का विशिष्ट प्रतिपादन किया : अथ प्रश्नव्याकरणाख्यं दशमाङ्गं व्याख्यायते। प्रश्ना :-अङ्गष्ठादि प्रश्नविद्यास्ता व्याक्रियन्ते-अभिधीयन्ते अस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणं, कर्तर्यनटि सिद्धम् । क्वचित प्रश्नव्याकरणदशा इति नाम दृश्यते, तत्र प्रश्नानांविद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशाध्ययनप्रतिबद्धा ग्रन्थपद्धतय इति एतादृशं अङ्ग पूर्वकालेऽभूत । इदानीं तु आश्रवसंवरपञ्चक व्याकृतिरेव लभ्यते । पर्वाचार्यैरेदंयुगीनपूरुषाणां तथाविधहीनहीनतरपाण्डित्यबलबुद्धिवीर्यापेक्षया पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविद्यास्थाने पञ्चाश्रवसंवररूपं समुत्तारितं, विशिष्टसंयमवतां क्षयोपशमवशात् प्रश्नादिविद्यासम्भवात् ।' १. पृ० २ ( २ ). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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