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अष्टम प्रकरण द्रोणसूरिकृत ओपनियुक्ति-वृत्ति द्रोणसूरि ने ओघनियुक्ति पर टीका लिखी है । इसके अतिरिक्त इनकी कोई टीका नहीं है । इन्होंने अभयदेवसरिकृत टीकाओं का संशोधन किया था। ये पाटनसंघ के प्रमुख पदाधिकारी थे एवं विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवी शती में विद्यमान थे।
प्रस्तुत वृत्ति' ओधनियुक्ति एवं इसके लघुभाष्य पर है । वृत्ति की भाषा सरल एवं शैली सुगम है । मूल पदों के शब्दार्थ के साथ ही साथ तद्-तद् विषय का भी शंका-समाधान पूर्वक संक्षिप्त विवेचन किया गया है। कहीं-कहीं प्राकृत और संस्कृत उद्धरण भी दिये गये हैं। प्रारम्भ में आचार्य ने पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया है :
अर्हद्भ्यस्त्रिभुवनराजपूजितेभ्यः,
सिद्धेभ्यः सितघनकर्मबन्धनेभ्यः। आचार्यश्रुतधरसर्गसंयतेभ्यः,
सिद्धयर्थी सततमहं नमस्करोमि ।। तदनन्तर प्रस्तुत नियुक्ति का संदर्भ बताते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि यह आवश्यकानुयोगसम्बन्धी व्याख्यान है । उसमें सामायिक नामक प्रथम अध्ययन का निरूपण चल रहा है । उसके चार अनुयोगद्वार हैं : उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । इनमें से अनुगम के दो भेद है : नियुक्त्यनुगम और सूत्रानुगम । नियुक्त्यनुगम तीन प्रकार का है : निक्षेप, उपोद्घात और सूत्रस्पर्श । इनमें से उपोद्घात-नियुक्त्यनुगम के उद्देश, निर्देश आदि २६ भेद हैं । उनमें से काल के नाम, स्थापना, द्रव्य, अद्धा, यथायुष्क, उपक्रम, देश, काल, प्रमाण, वर्ण, भाव आदि भेद हैं । इनमें से उपक्रमकाल दो प्रकार का है : सामाचारी और यथायुष्क । सामाचारी-उपक्रमकाल तोन प्रकार का है : ओघ, दशधा और पदविभाग । इनमें जो ओधसामाचारी है वही ओधनियुक्ति है । प्रस्तुत ग्रंथ में इसी का व्याख्यान है । द्रोणाचार्य ने अपनी टीका के प्रारम्भ में इस संदर्भ को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है : १. आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१९. २. पृ० १.
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