________________
अभयदेवविहित वृत्तियाँ
३७३ प्त्या मर्यादया वा-परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपयाख्यानानि-भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम्, अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्याःअभिलाप्यपदार्थवृत्तयस्ताः प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम्, अथवा व्याख्यानाम्अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो-ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः, अथवा............१
इस प्रकार वृत्तिकार ने विविध दृष्टियों से व्याख्याप्रज्ञप्ति के दस अर्थ बताये हैं। आगे भी अनेक शब्दों के व्याख्यान में इसी प्रकार का अर्थ-वैविध्य दृष्टिगोचर होता है जो वृत्तिकार के व्याख्यान-कौशल का परिचायक है।
प्रथम सूत्र "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो सव्वसाहणं, का व्याख्यान करते हुए वृत्तिकार ने पंचम पद ‘णमो सव्वसाहूणं' के पाठान्तर के रूप में 'नमो लोए सव्वसाहूणं' भी दिया है : नमो लोए सव्वसाहूणं' ति क्वचित्पाठः। चतुर्थ सूत्र 'तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे........' की व्याख्या में आचार्य ने बताया है कि 'णमो अरिहंताणं........' आदि प्रथम तीन सूत्रों का मूलटीकाकार-मूलवृत्तिकार ने व्याख्यान नहीं किया। उन्होंने इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया है : अयं च प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः, कुतोऽपि कारणादिति । ये वृत्तिकार अथवा टीकाकार कौन है ? संभवतः यह उल्लेख आचार्य शीलांक की टोका का है जो प्रथम नौ अंगों के टीकाकार माने जाते हैं किन्तु जिनकी प्रथम दो अंगों की टीकाएं ही उपलब्ध हैं । आचार्य शीलांक के अतिरिक्त अन्य किसी ऐसे टीकाकार का उल्लेख नहीं मिलता जिसने अभयदेवसूरि के पूर्व व्याख्याप्रज्ञप्ति की टीका लिखी हो । चूणि का उल्लेख तो प्रस्तुत वत्ति के प्रारंभ में ही अलग से किया गया है अतः यह टोका चूणिरूप भी नहीं हो सकती । आगे की वृत्ति में भी अनेक बार मूलटीकाकार अथवा मूलवृत्तिकार का उल्लेख किया गया है :
'मूलटीकाकृता तु 'उच्छूढसरीरसंखित्तविउलतेयलेस' त्ति कर्मधारयं कृत्वा व्याख्यातमिति"५ ‘एतच्च टोकाकारमतेन व्याख्यातम्," १. रतलाम-संस्करण, पृ० २-३. २. पृ० ४,५,६,१२,१५,१८,१९,६२. ३. पृ० ६.
४. पृ० १०. ५. पृ० २०
६. पृ० २९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org