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अभयदेवविहित वृत्तियां
३८३ औपपातिकवृत्ति :
यह वृत्ति' भी शब्दार्थ-प्रधान है। प्रारंभ में वत्तिकार ने वर्धमान को नमस्कार करते हुए औपपातिक शास्त्र की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है :
श्रीवर्धमानमानम्य, प्रायोऽन्यग्रंथवीक्षिता।
औपपातिकशास्त्रस्य, व्याख्या काचिद्विधीयते ।। इसके बाद 'औपपातिक' का शब्दार्थ किया है : अथौपपातिकमिति कः शब्दार्थः ? उच्यते-उपपतनमुपपातो-देवनारकजन्म सिद्धिगमनं च, अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकम् । देवों और नारकों के जन्म और सिद्धिगमन को उपपात कहते हैं। उपपातसम्बन्धी वर्णन के कारण तत्सम्बद्ध ग्रन्थ का नाम औपपातिक है। यह ग्रंथ किसका उपांग है इसका उत्तर देते हुए वृत्तिकार कहते हैं : इदं चोपाङ्गं वर्तते, आचारांगस्य हि प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा, तस्याद्योद्देशके सूत्रमिदम् ‘एवमेगेसि नो नायं भवइ-अत्थि वा मे आया उववाइए, नत्यि वा मे आया उववाइए, के वा अहं आसी ? के वा इह (अहं ) च्चुए (इओ चुओ) पेच्चा इह भविस्सामि' इत्यादि, इह च सूत्रे यदीपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं तदिह प्रपंचयत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समोपभावेनेदमुपांगम्। यह ग्रन्थ आचारांग का उपांग है। आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के आद्य उददेशक के 'एवमेगेसि नो नायं भवइ-अत्थि वा मे आया उववाइए." सूत्र में आत्मा का औपपातिकत्व निर्दिष्ट है उसका विशेष वर्णन करने के कारण औपपातिकसूत्र आचारांग का उपांग कहा जाता है ।
प्रथम सूत्र 'तेणं कालेणं..." का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने सूत्रों के अनेक पाठभेद होना स्वीकार किया है : इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते..."। आगे आचार्य ने सूत्रान्तर्गत नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विडम्बक, कथक, प्लवक, लासक, आख्यायक, लंख, मंख; तूणइल्ल, तुम्बवीणिक, तालाचर, आराम, उद्यान, अवट, तडाग, दीधिक, वप्पिणि, अट्टालक, चरिक, द्वार, गोपुर, तोरण, परिघ, इन्द्रकील, शिल्पी, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, पणित, आपण, चतुर्मुख, महापथ, पंच, शिबिका, स्यन्दमानिक, यान, युग्य, याग, भाग, दाय, कन्द, स्कन्ध, त्वक, शाला ( शाखा ), प्रवाल, विष्कम्भ, आयाम, उत्सेध, अन्जनक, हलधरकोसेज्ज, कज्जलांगी, शृंगभेद, रिष्ठक, अशनक,
१. ( अ ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८८०.
(आ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६.
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