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मलयगिरिविहित वृत्तियाँ
३९९ अर्थात् लवणसमुद्र को छोड़कर शेष द्वीप-समुद्र में जितने भी ज्योतिष्कविमान है, सब सामान्य स्फटिक के हैं। लवणसमुद्र के ज्योतिष्क-विमान उदकस्फाटन स्वभाव अर्थात् पानी को फाड़ देनेवाले स्फटिक के बने हुए है । 'समयखेत्ते णं भंते....' ( सन् १७७ ) की व्याख्या में पंचवस्तुक' और हरिभद्र की तत्वार्थटीका के उदाहरण दिये हैं। आगे तत्त्वार्थभाष्य , जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण को स्वोपज्ञ भाष्यटीका ( विशेषावश्यकभाष्यटीका )४ और पंचसंग्रहटीका" का उल्लेख करते हुए इनके भी उद्धरण दिये गये हैं। विवरण के अन्त में आचार्य मलय गिरि ने निम्न श्लोकों की रचना की है :६
जयति परिस्फुटविमलज्ञानविभासितसमस्तवस्तुगणः । प्रतिहतपरतीथिमतः श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ।। १॥ सरस्वती तमोवृन्द, शरज्ज्योत्स्नेव निघ्नती। नित्यं वो मंगलम् दिश्यान्मुनिभिः पर्युपासिता ॥२॥ जीवाजीवाभिगमं विवृण्वताऽवापि मलयगिरिणेह ।
कुशलं तेन लभन्तां मुनयः सिद्धान्तसद्बोधम् ॥ ३ ॥ व्यवहारविवरण :
प्रस्तुत विवरण' मूल सूत्र नियुक्ति एवं भाष्य पर है । प्रारम्भ में प्रस्तावनारूप पीठिका है जिसमें कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त आदि पर प्रकाश डाला गया है। सर्वप्रथम विवरणकार आचार्य मलयगिरि भगवान् नेमिनाथ, अपने गुरुवर एवं व्यवहारचूर्णिकार को नमस्कार करते हैं तथा व्यवहार सूत्र का विवरण लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं :
प्रणमत नेमिजिनेश्वरमखिलप्रत्यूहतिमिररबिम्बम् । दर्शनपथमवतीर्णं, शशिवद् दृष्टः प्रसत्तिकरम् ॥ १ ॥ नत्वा गुरुपदकमलं, व्यवहारमहं विचित्रनिपुणार्थम् । विवृणोमि यथाशक्ति, प्रबोधहेतोर्जडमतीनाम् ॥ २ ॥ विशमपदविवरणेन, व्यवहर्तव्यो व्यधायि साधूनाम् । येनायं व्यवहारः, श्रीचूर्णिकृते नमस्तस्मै ॥ ३ ॥ भाष्यं क्व चेदं विषमार्थगर्भ, क्व चाहमेषोऽल्पम तिप्रकर्षः ।
तथापि सम्यग्गुरुपयुपास्तिप्रसादतो जातदृढप्रतिज्ञः ॥ ४ ॥ १. पृ० ३३८ (१). २. पृ० ३४० (२). ३. पृ० ३७९ (१). ४. पृ० ४०१ (२). ५. पृ० ४११ (२). ६. पृ० ४६६ (२). ७. संशोधक-मुनि माणेक; प्रकाशक-केशवलाल प्रेमचन्द्र मोदी व त्रिक्रमलाल
उगरचंद, अहमदाबाद, वि० सं० १९८२-५.
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