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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है क्योंकि उत्तरगुणों के दस भेद हैं अतः उनके अतिचारों के भी दस भेद हैं । दस प्रकार के प्रत्याख्यानरूप उत्तरगुण इस प्रकार हैं : अनागत, अतिक्रान्त, कोटोसहित, नियंत्रित, साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्धा-प्रत्याख्यान । अथवा उत्तरगुणों के दस भेद ये हैं : पिण्डविशुद्धि, पांच समितियां, बाह्यतप, आभ्यन्तरतप, भिक्षुप्रतिमा और अभिग्रह । मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना के इन भेदों में से प्रत्येक के पुनः दो भेद हैं : दर्य और कल्प्य । अकारण प्रतिसेवना दपिका है और सकारण प्रतिसेवना कल्पिका है । इसी प्रकार आचार्य ने आगे भी अनेक सूत्रसम्बद्ध विषयों का सुसंतुलित विवेचन किया है । अन्त में विवरणकार ने अपना नाम-निर्देश करते हुए लिखा है:
देशक इव निर्दिष्टा विषमस्थानेष तत्त्वमार्गस्य । विदुषामतिप्रशस्यो जयति श्रीचूर्णिकारोऽसौ ॥१॥ विषमोऽपि व्यवहारो व्यधायि सुगमो गुरूपदेशेन । यदवापि तत्र पुण्यं तेन जनः स्यात्सुगतिभागो ॥२॥ दुर्बोधातपकष्टव्यपगमलब्धैकविमलकीर्तिभरः । टीकामिमामकार्षीत् मलयगिरिः पेशलवचोभिः॥३।। व्यवहारस्य भगवतो यथास्थितार्थप्रदर्शनदक्षम् ।
विवरणमिदं समाप्तं श्रमणगणानाममृतभूतम् ॥४॥ विवरण का ग्रंथमान ३४६२५ श्लोक-प्रमाण है। प्रस्तुत संस्करण में अनेक अशुद्धियां हैं जिनका संशोधन अत्यावश्यक है। राजप्रश्नीयविवरण : . द्वितीय उपांग राजप्रश्नीय के प्रस्तुत विवरण के प्रारम्भ में विवरणकार आचार्य मलयगिरि ने वीर जिनेश्वर भगवान् महावीर को नमस्कार किया है तथा राजप्रश्नोय का विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की है :
प्रणमत वीरजिनेश्वरचरणयुगं परमगाटलच्छायम् । अधरीकृतनतवासवमुकुटस्थितरत्नरुचिचक्रम् ॥१॥ राजप्रश्नीयमहं विवृणोमि यथाऽऽगमं गुरुनियोगात् ।
तत्र च शक्तिमशक्ति गुरवो जानन्ति का चिन्ता ।।२।। १. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८८०.
(आ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२५. ( इ ) सम्पादक-पं० बेचरदास जीवराज दोशी; प्रका०-गूर्जर ग्रन्थरत्न
कार्यालय, अहमदाबाद, वि० सं० १९९४.
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