________________
मलयगिरिविहित वृत्तियाँ
४०७ भाष्यगाथाएँ उद्धृत की हैं। विवरण में विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका का भी उल्लेख है ' । प्रज्ञाकरगुप्त,२ ( आवश्यक ) चूणिकार,३ ( आवश्यक ) मूलटीकाकार,४ (आवश्यक ) मूलभाष्यकार,५ लघीयस्त्रयालंकारकार अकलंक, न्यायावतारविवृतिकार' आदि का भी प्रस्तुत टीका में उल्लेख किया गया है। स्थान-स्थान पर सप्रसंग कथानक उद्धृत करना भी आचार्य नहीं भूले हैं । ये कथानक प्राकृत में हैं। 'थूभं रयणविचित्तं कुथुसुमिणम्मि तेण कुथुजिणो' की व्याख्या के बाद का वाक्य 'साम्प्रतमरः' अर्थात् 'अब अरनाथ के व्याख्यान का अधिकार है' के बाद का विवरण उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध विवरण चतुर्विशतिस्तव नामक द्वितीय अध्ययन तक ही है और वह भी अपूर्ण । बृहद्कल्पपीठिकावृत्ति :
यह वृत्ति भद्रबाहुस्वामिकृत बृहत्कल्पपीठिका नियुक्ति और संघदासगणिकृत भाष्य ( लघुभाष्य ) पर है। वृत्तिकार मलयगिरि पीठिका की भाष्यगाथा ६०६ पर्यन्त हो अपनो वृत्ति लिख सके । शेष पीठिका तथा आगे के मूल उद्देशों के भाष्य की वृत्ति आचार्य क्षेमको ति ने पूरी की। इस तथ्य का प्रतिपादन स्वयं क्षेमकीर्ति ने अपनी वृत्ति प्रारम्भ करते समय किया है :१०
श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः ।
सा कल्पशास्त्रटीका, मयाऽनुसन्धीयतेऽल्पधिया ॥ प्रारम्भ में वृत्तिकार ने वीर जिनेश्वर को प्रणाम किया है तथा अपने गुरुपद कमलों का सादर स्मरण करते हुए कल्पाध्ययन की वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है। भाष्यकार और चूणिकार को कृतज्ञता स्वीकार करते हुए मंगलाभिधान के व्याख्यान के साथ आगे की वृत्ति प्रारम्भ को है :
प्रकटीकृतनिःश्रेयसपदहेतुस्थविरकल्पजिनकल्पम् । नम्राशेषनरामरकल्पितफलकल्पतरुकल्पम् ॥१॥ नत्वा श्रीवीरजिनं, गुरुपदकमलानि बोधविपुलानि ॥ कल्पाध्ययनं विवृणोमि लेशतो गुरुनियोगेन ।। २ ॥ भाष्यं क्व चातिगम्भीरं, क्व चाहं जडशेखरः। तदत्र जानते पूज्या, ये मामेवं नियुञ्जते ॥ ३ ॥ अद्भतगुणरत्ननिधी, कल्पे साहायकं महातेजाः ।
दीप इव तमसि कुरुते, जयति यतोशः सः चूर्णिकृत् ।। ४ ॥ १. पृ० ६६. २. पृ० २८. ३. पृ० ८३. ४. पृ० १२८. ५. पृ० २७१. ६. पृ० ३७७. ७. वही० ८. पृ० १०१, १३५, १५३, २९४. ९. जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३३. १०. पृ० १७७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org