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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसके बाद व्याख्याकार ने हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति के कुछ कठिन स्थलों का सरल शैली में व्याख्यान करते हुए अन्त में व्याख्यागत दोषों की संशुद्धि के लिए मुनिजनों से प्रार्थना की है : इति गुरुजनमूलादर्थजातं स्वबुद्धया,
यदवगतमिहात्मस्मृत्युपादानहेतोः। तदुपरचितमेतत् यत्र किञ्चित्सदोष,
मयि कृतगुरुतोषैस्तत्र शोध्यं मुनीन्द्र : ॥१॥ छद्मस्थस्य हि मोहः कस्य न भवतीह कर्मवशगस्य । सद्बुद्धिविरहितानां विशेषतो मद्विधासुमताम् ॥२।।
प्रस्तुत व्याख्या का ग्रन्थमान ४७०० श्लोकप्रमाण है । अनुयोगद्वारवृत्तिः
यह वृत्ति' अनुयोगद्वार के सूत्रों का सरलार्थ प्रस्तुत करने के लिए बनाई गई है । प्रारम्भ में आचार्य ने वीर जिनेश्वर , गौतमादि सूरिवर्ग एवं श्रुतदेवता को नमस्कार किया है :
सम्यक सुरेन्द्रकृतसंस्तुतपादपद्ममुहामकामकरिराजकठोरसिंहम् । सद्धर्मदेशकवरं वरदं नतोऽस्मि, वीरं विशुद्धतरबोधनिधि सुधीरम् ।।१।। अनुयोगभृतां पादान् वन्दे श्रीगौतमादिसूरीणाम् । निष्कारणबन्धूनां विशेषतो धर्मदातृणाम् ॥२॥ यस्याः प्रसादमतुलं संप्राप्य भवन्ति भव्यजननिवहाः। अनुयोगवेदिनस्तां प्रयतः श्रुतदेवतां वन्दे ॥३॥
प्रथम सूत्र 'नाणं पंचविह..' की व्याख्या प्रारम्भ करने के पूर्व वृत्तिकार कहते हैं कि यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने चूणि और टीका ( हारिभद्रीय ) के द्वारा इस ग्रन्थ का व्याख्यान किया है किन्तु अल्प बुद्धि वाले शिष्यों के लिए उसे समझने में कठिनाई होने के कारण मैं मंदमति पुनः इसका व्याख्यान प्रारम्भ करता हूँ : स च यद्यपि चूर्णिटीकाद्वारेण वृद्धैरपि विहितः तथापि तद्वचसामतिगम्भीरत्वेन दुरधिगमत्वाद् मन्दमतिनाऽपि मयाऽसाधारण
१. पृ० ११७. २. (अ)रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८८०
(आ) देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१५-६. (इ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१४. ( ई ) केशरबाई ज्ञानमंदिर, पाटन, सन् १९३९.
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