Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 419
________________ ४१० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचना को । तदनन्तर उन दोनों को क्रमशः १४ हजार और १३ हजार श्लोकप्रमाण वृत्तियाँ बनाई। इसके बाद अनुयोगद्वार, जीवसमास और शतक (बंधशतक ) की क्रमशः ६, ७ और ४ हजार श्लोक-प्रमाण वृत्तियों की रचना की । मूल आवश्यकवृत्ति ( हरिभद्रकृत ) पर ५ हजार श्लोकप्रमाण टिप्पण लिखा तथा विशेषावश्यकभाष्य पर २८ हजार श्लोक-प्रमाण विस्तृत वृत्ति लिखी।' .......... अन्त में मृत्यु के समय आचार्य हेमचन्द्र ने अपने गुरु अभयदेव की ही भाँति आराधना की। उसमें इतनी विशेषता अवश्य थी कि इन्होंने सात दिन की संलेखना-अनशन किया था ( जबकि आचार्य अभयदेव ने ४७ दिन का अनशन किया था) और राजा सिद्धराज स्वयं इनको शवयात्रा में सम्मिलित हुआ था ( जबकि अभयदेव को शवयात्रा का दृश्य उसने अपने महलों से ही देख लिया था) । इनके तोन गणधर थे : १. विजयसिंह, २. श्रीचन्द्र और ३. विबुधचन्द्र । उनमें से श्रीचन्द्र पट्टधर आचार्य हुए।' आचार्य विजयसिंह ने धर्मोपदेशमाला की बृहद्वृत्ति लिखो है। उसकी समाप्ति वि० स० ११९१ में हुई है । उसको प्रशस्ति में आचार्य विजयसिंह ने अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्र और उनके गुरु आचार्य अभयदेव का जो परिचय दिया है उससे मालूम होता है कि सं० ११९१ में आचार्य मलधारी हेमचन्द्र की मृत्यु को काफी वर्ष व्यतीत हो चुके थे। ऐसी दशा में यह माना जाय कि अभयदेव की मृत्यु होने पर अर्थात् वि० सं० ११६८ में हेमचन्द्र ने आचार्यपद प्राप्त किया और लगभग सं० ११८० तक उस पद को शोभित किया तो कोई असंगति नहीं । उनके ग्रन्थान्त की किसी भी प्रशस्ति में वि०सं० ११७७ के बाद के वर्ष का उल्लेख नहीं मिलता। . आचार्य हेमचन्द्र ने स्वहस्तलिखित जोवसमास की वृत्ति को प्रति के अन्त में अपना जो परिचय दिया है उसमें उन्होंने अपने को यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान के अनुष्ठान में रत परम नैष्ठिक पडित श्वेताम्बराचार्य भट्टारक के रूप में प्रस्तुत किया है। यह प्रति उन्होंने वि० सं० ११६४ में लिखी है । प्रशस्ति इस प्रकार है : ग्रन्थाग्र ६६२७ । संवत् ११६४ चैत्र सुदि ४ सोमेऽद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलिविराजितमहाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमज्जयसिंह-देवकल्याणविजयराज्ये एवं काले प्रवर्तमाने यमनियमस्वाध्यायध्याना १. इस सूची में नन्दिटिप्पण का उल्लेख नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य की वृत्ति ___के अन्त में इस टिप्पणी का उल्लेख उपलब्ध है । २. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ० ५१-२. ३. श्री प्रशस्तिसंग्रह ( श्री शान्तिनाथजो ज्ञानभंडार, अहमदाबाद ), पृ० ४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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