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अन्य टीकाएँ
त्वा श्रीवीरजिनं तदनु श्रीमेरुतु 'गसूरिगुरुन् । कुर्वे श्री आवश्यक नियु वितेर्दी पिकाममलाम् ||
यह दीपिका दुर्गपदार्थं तक ही सीमित है, इसे दीपिकाकार ने प्रारम्भ में ही स्वीकार किया है : श्रीआवश्यक सूत्रनिर्युक्तिविषयः प्रायो दुर्गपदार्थः कथामात्र नियुक्त्युिदाहृतं च लिख्यते ।' मंगलाचरण के रूप में नन्दी सूत्र के प्रारम्भ की पचास गाथायें, जोकि दीपिकाकार के कथनानुसार देवद्विगणिप्रणीत हैं?, उद्धृत करने के बाद 'आभिणिबोहियनाण" इत्यादि गाथाओं का व्याख्यान प्रारम्भ किया है । दोपिका के अन्त की प्रशस्ति में बताया गया है कि प्रस्तुत ग्रंथकार माणिक्यशेखरसूरि अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य मेरुतुरंगसूरि के शिष्य हैं । आवश्यक नियुक्ति - दीपिका के अतिरिक्त निम्न टीकाएँ भी इन्हीं की कृतियाँ हैं । १. दशवेकालिक नियुक्ति-दीपिका, २. पिण्डनियुक्तिदीपिका, ३. ओaft क्ति-दीपिका, ४. उत्तराध्ययन-दीपिका, ५. आचार - दीपिका । प्रशस्ति इस प्रकार है :3
ते श्रीअञ्चलगच्छमण्डनमणिश्रीमन्महेन्द्रप्रभश्रीसूरीश्वरपट्टपंकज समुल्लासोल्लासद्भानवः । तर्कव्याकरणादिशास्त्रघटनाब्रह्मायमाणाश्चिरं,
श्रीपूज्यप्रभुमेरुतुङ्गगुरवो जीयासुरानन्ददाः ॥ १ ॥ तच्छिष्य एष खलु सूरिरचीकरत् श्री
माणिक्यशेखर इति प्रथिताभिधानः ।
चञ्चद्विचारचय चेतनचारुमेनां,
सद्दीपिका सुविहितव्रतिनां हिताय ॥ २ ॥ मुनिनिचयवाच्यमाना तमोहरा दीपिका पिडनियुक्तेः । ओघनियुक्तिदीपिका दशवेकालिकस्याप्युत्तराध्ययनदोपिके ॥ ३ ॥
आचारदीपिकानावतत्त्वविचारणं तथास्य ।
एककर्तृतया ग्रन्था अमो अस्याः सहोदराः ॥ ४ ॥
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माणिक्यशेखरसूरि संभवतः विक्रम की १५ वीं शती में विद्यमान थे । अंचलगच्छीय मेरुतु गरि के शिष्य जयकीर्तिसूरि ने वि० सं० १४८३ में एक चैत्य की
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१. प्रथम विभाग, पृ० १.
२. इह श्रीदेववाचक इत्यपरनामा देवद्वगणिर्ज्ञानपञ्चकरूपं नन्दिग्रन्थं वक्तुकामो मंगलार्थं । - वही.
३. तृतीय विभाग, पृ० ४६.
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