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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अर्थात् श्री शालि ( शोल ) भद्रसूरि के शिष्य श्रीचन्द्ररि ने अपने तथा दूसरों के लिए बीसवें उद्देश की यह व्याख्या बनाई ।
इसी प्रकार व्याख्या की समाप्ति का समय-निर्देश करते हुए आचार्य कहते हैं :
वेदाश्वरुद्रयुक्ते, विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे ।
माघसितद्वादश्यां, समर्थितेयं रवौ वारे ॥ २॥ निरयावलिकावृत्ति :
___ यह वृत्ति' अन्तिम पाँच उपांगभूत निरयावलिका सूत्र पर है : निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूला और वृष्णिदशा । इस वृत्ति के अतिरिक्त इस सूत्र की और कोई टीका नहीं है । वृत्ति संक्षिप्त एवं शब्दार्थप्रधान है। प्रारम्भ में आचार्य ने पार्श्वनाथ को प्रणाम किया है :
पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता।
निरयावलिश्रुतस्कन्धे व्याख्या काचित् प्रकाश्यते ॥ वृत्ति के अन्त में वृत्तिकार के नाम, गुरु, वृत्तिलेखन के समय, स्थान आदि का कोई उल्लेख नहीं है । मुद्रित प्रति के अन्त में केवल 'इति श्रीचन्द्रसूरिविरचितं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धविवरणं समाप्तमिति । श्रीरस्तु ।' इतना सा उल्लेख है। वृत्ति का ग्रंथमान ६०० श्लोकप्रमाण है। जीतकल्पबृहच्चूर्णि-विषमपदव्याख्या : ____ यह व्याख्या सिद्धसेनगणिकृत जीतकल्पबृहन्चूणि के विषमपदों के विवेचन के रूप में है। प्रारंभ में व्याख्याकार श्रीचन्द्रसूरि ने भगवान् महावीर को नमस्कार करके स्व-परोपकार के निमित्त जीतकल्पबृहच्चूर्णि की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है :
नत्वा श्रीमन्महावीरं स्वपरोपकृतिहेतवे ।
जीतकल्पबृहच्चूर्णेाख्या काचित् प्रकाश्यते ।। 'सिद्धत्थ.......' इत्यादि प्रारम्भ की एकादश चूर्णि-गाथाओं ( मंगलगाथाओं) की व्याख्या करने के बाद आचार्य ने 'को विसोसो...."आदि पाठों
१. (अ) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८५.
(आ) आगमोदय समिति, सूरत, सन् १९२२.
(इ) गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, सन् १९३४. २, अहमदाबाद-संस्करण, पृ० ३९. ३. जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद, सन् १९२६.
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