Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 429
________________ चतुर्दश प्रकरण अन्य टीकाएँ उपयुक्त टीकाकार आचार्यों के अतिरिक्त और भी ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने आगमों के टीकानिर्माण में अपना योग दिया है। शिवप्रभसूरि के शिष्य श्रीकिलकसूरि ने आवश्यक सूत्र पर वि० सं० १२९६ में टीका लिखी है जिसका नाम लघुवृत्ति है। इसके अतिरिक्त जीतकल्प और दशवकालिक पर भी इनकी टीकाएँ है । क्षेमकीर्ति ने मलयगिरिकृत बृहत्कल्प की अपूर्ण टीका पूरी की है। महेन्द्रसूरि (सं० १२९४) के शिष्य भुवनतुंगसूरि ने चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान और संस्तारक-इन प्रकोणंकों पर टीकाएँ लिखी हैं। इसी प्रकार गुणरत्न (सं० १४८४) ने भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों पर टीकाएँ लिखी हैं। विजयविमल (सं० १६३४) की तंदुलवैचारिक और गच्छाचार प्रकीर्णकों पर टीकाएँ है। वानरर्षि ने गच्छाचार प्रकीर्णक पर वृत्ति लिखी है। हीरविजयसूरि ने सं० १६३९ में और शान्तिचन्द्रगणि ने सं० १६६० में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर टीकाएँ लिखी हैं। शान्तिचन्द्रगणि की टीका का नाम प्रमेयरत्नमंजूषा है। जिनहंस ने सं० १५८२ में आचारांग पर वृत्ति (दीपिका) लिखी है। सं० १५८३ में हर्षकुल ने सूत्रकृतांगदीपिका की रचना की। भगवती और उत्तराध्ययन पर भी इन्होंने टीकाएँ लिखीं। लक्ष्मीकल्लोलगणि ने आचारांग (सं० १५९६ ) और ज्ञाताधर्मकथा पर, दानशेखर ने भगवती पर (व्याख्याप्रज्ञप्तिलघुवृत्ति), विनयहंस ने उत्तराध्ययन और दशवकालिक पर टीकाएँ लिखी हैं । इनके अतिरिक्त आवश्यकादि पर अन्य आचार्यों को भी टीकाएँ हैं। आवश्यकपर जिनभट, नमिसाधु (सं० ११२२), ज्ञानसागर (सं० १४४०), माणिक्यशेखर, शुभवर्धनगणि (सं० १५४०), धीरसुन्दर (सं० १५००), श्रीचन्द्रसूरि सं० १२२२), कुलप्रभ, राजवल्लभ, हितरुचि (सं० १६९७) आदि ने, आचारांग पर अजित-देवसूरि, पावचन्द्र (सं० १५७२), माणिक्यशेखर आदि ने, सूत्रकृतांग पर साधुरंग उपाध्याय (सं० १५९९). पाश्वंचन्द्र आदि ने, स्थानांग पर नगर्षिगणि (सं० १६५७), पावचन्द्र, सुमतिकल्लोल और हर्षनन्दन (सं० १७०५) आदि ने, समवायांग पर मेघराज वाचक आदि ने, व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती पर भावसागर, पद्मसुन्दरगणि आदि ने, ज्ञाताधर्मकथा पर कस्तूरचन्द्र (सं० १८९९) १. पावचन्द्रकृत टीकाएं गुजराती में हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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