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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विद्यमान है : तस्मिन् समये आमलकल्पा नाम नगरी अभवत्, ननु इदानीमपि सा नगरी वर्तते। द्वितीय सूत्रान्तर्गत आम्रशालवन -- अंबसालवण नामक चैत्य का वर्णन करते हुए 'चैत्य' का अर्थ इस प्रकार किया है : चितेः - लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यम्, तच्च इह संज्ञाशब्दत्वात् देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धम्, ततस्तदाश्रयभूतं यद् देवताया गृहं तदप्युपचारात् चैत्यम्, तच्चेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं न तु भगवतामर्हतामायतनम् | 'चैत्य' शब्द देवता के प्रतिबिम्ब के अर्थ में प्रसिद्ध है । उपचार से देवता के प्रतिबिम्ब का आश्रयभूत देवगृह भी चैत्य कहलाता है । यहाँ पर चैत्य शब्द का ग्रहण व्यन्तरायतन के रूप में करना चाहिए, न कि अर्हदायतन के रूप में । तृतीय सूत्रान्तर्गत 'पहकर' शब्द का व्याख्यान करते हुए देशीनाममाला का एक उद्धरण दिया है : पहकराः संघाताः - ' पहकर - ओरोह - संघाया इति देशीनाममालावचनात् । आचार्य हेमचन्द्रविरचित देशीनाममाला में उपर्युक्त उद्धरण उपलब्ध नहीं है । संभवतः यह उद्धरण किसी अन्य प्राचीनतर देशीनाममाला का है । प्रस्तुत विवरण में आचार्य ने अनेक स्थानों पर जीवाभिगम-मूलटीका का उल्लेख किया है एवं उसके उद्धरण दिये हैं । कहीं-कहीं सूत्रों के वाचनाभेदपाठभेद का भी निर्देश किया है : इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थं लिखित: ५, अत्र भूयान् वाचनाभेद:, अत ऊर्ध्वं सूत्रं सुगमं केवलं भूयान् विधिविषयो वाचनाभेद इति यथावस्थितवाचनाप्रदर्शनार्थं विधिमात्रमुपदश्यते इत्यादि । अन्त में टीकाकार ने प्रस्तुत विवरण से प्राप्त पुण्य से साधुजनों को कृतार्थ करते हुए ग्रंथ समाप्त किया है :
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राजप्रश्नीयमिदं गम्भीरार्थं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती । विवरण का ग्रन्थमान ३७०० श्लोक - प्रमाण है : प्रत्यक्षरगणनातो ग्रन्थमानं श्लोकानां
सप्तत्रिंशच्छतान्यत्र
विनिश्चितम् । सर्व संख्यया ॥
पिण्डनियुक्तिवृत्ति :
प्रस्तुत वृत्ति, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, आचार्य
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भद्रबाहुकृत पिण्ड
४. पृ० १६८, १७६, १७७, ६. पृ० २४१ ७. पृ० २५९ .
१. पृ० ३.
२. पृ० ७. ३. पृ० १६. १८०, १८९, १९५. ५. पृ० २३९. ८. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१८.
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