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मलयगिरिविहित वृत्तियाँ उनके मतसे 'इक् कृष्यादिभ्यः' सूत्र से 'इक' प्रत्यय करके स्त्रीलिंग में 'इतोऽक्त्यर्थात्' सूत्र से 'डी' प्रत्यय करने पर 'नन्दी' बनता है। ___ 'नन्दी' का निक्षेप-पद्धति से विवेचन करने के बाद टीकाकार ने 'जयइ जगजीवजोणी.........' इत्यादि स्तुतिपरक सूत्र-गाथाओं का सुविस्तृत व्याख्यान किया है । इसमें जीवसत्तासिद्धि, शाब्दप्रामाण्य, वचनापौरुषेयत्वखंडन, वीतरागस्वरूपविचार, सर्वज्ञसिद्धि, नैरात्म्यनिराकरण, संतानवादखण्डन, वास्यवासकभावखण्डन, अन्वयिज्ञानसिद्धि, सांख्यमुक्तिनिरास, धर्मधर्मभेदाभेदसिद्धि आदि का समावेश किया है।' वृत्ति का यह भाग दार्शनिक चर्चाओं से परिपूर्ण होने के कारण बौद्धिक आह्लाद उत्पन्न करने वाला है। आगे की वृत्ति में ज्ञानपंचकसिद्धि, मत्यादिक्रमस्थापना, प्रत्यक्ष-परोक्षस्वरूपविचार, मत्यादिस्वरूपनिश्चय अनंतरसिद्धकेवल, परम्परसिद्धकेवल, स्त्रीमुक्तिसिद्धि, युगपद्-उपयोगनिरास, ज्ञान-दर्शन-अभेदनिरास, सदृष्टान्तबुद्धिभेदनिरूपण, अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुतस्वरूपप्ररूपण आदि सम्बन्धी प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। अन्त में आचार्य ने चूर्णिकार को नमस्कार करते हुए टीकाकार हरिभद्र को भी सादर नमस्कार किया है तथा तथा वत्ति से उपाजित पुण्य को लोककल्याण के लिए समर्पित करते हए अर्हत आदि का मंगल-स्मरण किया है :
नन्द्यध्ययनं पूर्वं प्रकाशितं येन विषमभावार्थम् । तस्मै श्रीचूणिकृते नमोऽस्तु विदुषे परोपकृते ॥ १।। मध्ये समस्तभूपीठं, यशो यस्याभिवर्द्धते।। तस्मै श्रीहरिभद्राय, नमष्टीकाविधायिने ॥२॥ वृत्तिर्वा चूणिर्वा रम्याऽपि न मन्दमेधसां योग्या । अभवदिह तेन तेषामुपकृतये यत्न एष कृतः ॥ ३ ॥ बह्वर्थमल्पशब्द नन्द्यध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः ॥४॥ अर्हन्तो मङ्गलं में स्युः, सिद्धाश्च मम मङ्गलम् ।।
साधवो मंगलम् सम्यग, जैनो धर्मश्च मंगलम् ॥ ५ ॥ प्रस्तुत वृत्ति का ग्रंथमान ७७३२ श्लोकप्रमाण है । प्रज्ञापनावृत्ति :
वृत्ति के प्रारंभ में आचार्य ने मंगलसूचक चार श्लोक दिये हैं। प्रथम
१. पृ० २-४२। २. पृ० २५०. ३. ( अ ) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८४.
(आ) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८-९.
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